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विशेष लेख : 2019 में कैसी रही भारतीय विदेश नीति

2019 भारतीय विदेश नीति के लिए एक वाटरशेड जैसा रहा. मोदी सरकार ने मई में हुए आम चुनावों में प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में वापसी की. उन्होंने नए भारतीय विदेश मंत्री के रूप में एक 'टेक्नोक्रेट' को शामिल किया. इससे भारत की शक्ति में परिवर्तन के लिए विदेश नीति के सक्रिय उपयोग को बढ़ावा मिला.

भारतीय विदेश नीति
फाइल फोटो

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Published : Dec 27, 2019, 6:24 PM IST

इस उद्देश्य के लिए सबसे बड़ी चुनौती अगस्त 2019 के मध्य में आई, जब चीन ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (यूएनएससी) में भारत-पाकिस्तान के प्रश्न को फिर से जीवित कर दिया. इस विषय पर अंतिम चर्चा 1971 में हुई थी. इस मुद्दे के जरिए चीन और पाकिस्तान ने एक साथ मिलकर भारत को टकराव की स्थिति में ला दिया था. कश्मीर पर खुले टकराव जैसी स्थिति हो गई थी. हालांकि, चीन की नई बहुपक्षीय कूटनीति यहां काम आई. चीन के राष्ट्रपति दूसरे अनौपचारिक शिखर सम्मेलन में भाग लेने चेन्नई पहुंच गए. इसने दो पड़ोसी एशियाई देशों के बीच रचनात्मक जुड़ाव का नया प्रतिमान बनाया.

पुलवामा में भारतीय अर्धसैनिक बलों पर पाकिस्तान द्वारा प्रायोजित आतंकवादी हमले के बाद भारत और पाकिस्तान के बीच बिगड़ते द्विपक्षीय संबंध फरवरी में और बिगड़ गए. इसके बाद भारत ने पाकिस्तान के बालाकोट स्थित आतंकी कैंप पर हमला किया. बौखलाए पाकिस्तान ने एकतरफा रूप से अगस्त 2019 में भारत के साथ राजनयिक संबंधों को कम करने का फैसला किया. सितंबर के बाद से दुनिया के प्रमुख मंचों पर जम्मू और कश्मीर को लेकर भारत के खिलाफ एक निरंतर अंतरराष्ट्रीय अभियान शुरू किया. हालांकि, नवंबर के महीने में दोनों देशों के बीच करतारपुर कॉरिडोर पर सकारात्मक पहल की गई.

यह वर्ष भारत के पड़ोस में राजनीतिक परिवर्तन का गवाह बना रहा. भारत ने अपने पड़ोसियों के साथ उसके रणनीतिक जुड़ाव के लिए जगह बनाने या बनाने की मांग करते हुए इनका जवाब दिया. मई में नई सरकार के गठन पर बांग्लादेश, भूटान, नेपाल, श्रीलंका और म्यांमार के नेताओं की उपस्थिति के साथ-साथ 2019 में सार्क से हटकर बिम्सटेक (बंगाल की खाड़ी के आसपास केंद्रित) की ओर भारतीय विदेश नीति का पुन: उन्मुखीकरण स्पष्ट था. जून में नवनिर्वाचित प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पहले पड़ोस के गंतव्य के रूप में मालदीव की पसंद, और नवंबर के अंत में अपनी पहली विदेश यात्रा के लिए भारत का दौरा करने के नए श्रीलंकाई राष्ट्रपति के फैसले से, 'पड़ोसी पहले' की भारत की नीति को बल मिला.

वर्ष के अंत में भारत के उत्तर-पूर्वी राज्यों में घरेलू अशांति बढ़ने से चिंता जरूर बढ़ी. इसको लेकर बांग्लादेश और म्यांमार से संबंध प्रभावित होने की संभावना है. साथ ही भारत की एक्ट ईस्ट नीति पर भी प्रभाव पड़ सकता है. नवंबर के मध्य में गुवाहाटी में होने वाले भारत-जापान शिखर सम्मेलन के स्थगित होना और नवंबर में ही भारत का वह फैसला, जिसमें इसने आरसीईपी पर हस्ताक्षर ना करने का फैसला किया, चर्चा का विषय बना रहा. इसके तहत चीन, जापान, दक्षिण कोरिया, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड के साथ आसियान को जोड़ने वाली आरसीईपी व्यापारिक व्यवस्था जुड़ी है. यह सब ऐसे मुद्दे हैं, जहां भारत द्विपक्षीय और क्षेत्रीय स्तर पर समस्याओं का समाधान कर सकता है. भारत अपनी विदेश नीति के लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए यहां पर अंतरराष्ट्रीय आर्थिक सहयोग का भी इस्तेमाल कर सकता है.

इंडो पैसिफिक रणनीतिक ढांचे के दृष्टिकोण से देखने पर पाएंगे कि भारत ने 2019 में तीन विशेष पहलें की. इसमें कहीं भी भारत ने संप्रुभता से समझौता नहीं किया. सबसे पहले, भारत ने मई में संयुक्त राष्ट्र महासभा के प्रस्ताव में मॉरीशस का खुले तौर पर समर्थन किया था, जिसमें यूनाइटेड किंगडम को छह महीने के भीतर चागोस द्वीप समूह (डिएगो गार्सिया अमेरिकी सैन्य अड्डे के लिए घर) से अपने औपनिवेशिक प्रशासन को वापस लेने की आवश्यकता थी.

इंडो-पैसिफिक में स्वाभाविक रूप से खाड़ी में हमारे पश्चिमी महासागर पड़ोसी, अरब सागर के द्वीप राष्ट्र और अफ्रीका में हमारे साथी शामिल हैं. एक समावेशी 'इंडो-पैसिफिक महासागरों के हिस्से के रूप में' पहल ने पश्चिमी इंडो-पैसिफिक में एक अधिक दृश्यमान भारतीय रणनीतिक उपस्थिति को प्रस्तुत किया.

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तीसरा महत्वपूर्ण पहल है-व्लादिवोस्तोक के रूसी प्रशांत बंदरगाह से चेन्नई को जोड़ने वाले एक समुद्री संपर्क मार्ग की. सितंबर में इसकी घोषणा ने स्पष्ट रूप से रूस को खुले, स्वतंत्र और समावेशी भारत-प्रशांत क्षेत्र में एक हितधारक बना दिया.
2019 के दौरान संयुक्त राज्य अमेरिका, रूस और फ्रांस के साथ भारत के संबंधों में 'मुद्दा-आधारित व्यवस्था' का प्रभुत्व था. संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ, ऊर्जा और रक्षा सहयोग क्षेत्रों में लगातार प्रगति हुई, जो द्विपक्षीय व्यापार के मुद्दों पर मतभेद के बावजूद दिसंबर में टू प्लस टू रक्षा और विदेश मामलों के मंत्री का ध्यान केंद्रित था.

रूस के साथ, भारत में रक्षा पुर्जों के निर्माण के लिए संयुक्त विनिर्माण कार्यक्रमों में रूसी भागीदारी में वृद्धि हुई, और रूस के सुदूर पूर्व में भारतीय श्रमिकों के अस्थायी आंदोलन सहित व्यापार विकास को प्रोत्साहित करने के लिए एक बिलियन डॉलर लाइन-ऑफ-क्रेडिट की घोषणा ने रणनीतिक साझेदारी को महत्वपूर्ण रूप से बढ़ाया. फ्रांस के साथ रक्षा अधिग्रहण और हिंद महासागर की सुरक्षा पर समझौते, अंतर्राष्ट्रीय सौर गठबंधन जैसी वैश्विक जलवायु कार्रवाई उल्लेखनीय रही.

एक प्रमुख शक्ति में परिवर्तन को बनाए रखने के लिए निरंतर अंतर्राष्ट्रीय सहयोग पर निर्भर, विशेष रूप से आर्थिक और तकनीकी क्षेत्रों में, भारत ने 'सुधारित बहुपक्षवाद' में अपनी रुचि को बढ़ाया है. इसने यूएनएससी और आईएमएफ जैसे वैश्विक शासन संरचनाओं द्वारा निर्णय लेने में भारत की समान भागीदारी को प्राथमिकता दी. भारत का उद्देश्य साफ है, बहुध्रुवीय विश्व में बहुध्रुवीय एशिया, और इस पर भारतीय विदेश नीति आगे बढ़ रही है.

(लेखक- अशोक मुकर्जी, पूर्व राजदूत)

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