हैदराबाद : भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान ने दिल्ली के पूसा (PUSA) संस्थान में एक बायो डीकंपोजर तकनीक विकसित की है. इस तकनीक को पूसा डीकंपोजर कहा जाता है.
इस तकनीक की मदद से तरल डीकंपोजर तैयार किया जाता है. तरल डीकंपोजर तैयार करने के लिए पूसा कैप्सूल और अन्य समाग्री जैसे बेसन का उपयोग किया जाता है. तरल को तैयार होने में चार-पांच दिन का समय लगता है.
तैयार तरल का खेतों में पड़ी पराली पर छिड़काव किया जाता है. इससे पराली तेजी से डीकंपोज हो जाती है.
बायो डीकंपोजर क्या है?
भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान ने डीकंपोजर कैप्सूल विकसित किया है. इसको पानी में घोल कर खेतों में पराली पर छिड़का जा सकता है. इसकी मदद से पराली जल्दी डीकंपोज हो जाएगी और किसान उसको खाद की तरह इस्तेमाल कर पाएंगे.
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भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान द्वारा दी गई जानकारी के मुताबिक, डीकंपोडर के छिड़काव के बाद उसको अपना काम करने में 20-25 दिन लगते हैं. हालांकि, किसानों का कहना है 20-25 दिन का इंतजार उनके लिए बहुत लंबा है. वह धान की फसल के बाद 10 का इंतजार करते हैं, जिसके बाद वह गेहूं की बोआई शुरू कर देते हैं.
भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के वैज्ञानिकों का मानना है कि किसानों को गेहूं की बोआई करने में जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए. वह 20-25 दिनों का इंतजार कर सकते हैं.
डीकंपोजर का इस्तेमाल कैसे करें?
भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के वैज्ञानिकों ने शोध में पाया है कि सात तरह के कवक ऐसे हैं जो कड़े पराली को जल्द डीकंपोज करने में मदद करते हैं.
इन कवकों को चार कैप्सूल में पैक किया गया है. चार कैप्सूलों की कीमत 20 रुपये है. इन कैप्सूलों से इस्तेमाल करने लायक तरल बनाया जाता है, जिसको तैयार होने में चार से पांच दिन लगते हैं.
तरल को बनाने के लिए 25 लीटर उबलते हुए पानी में 150 ग्राम गुड़ मिलाया जाता है. गुड़ से कवक को बढ़ने में मदद मिलती है. तरल के ढंडे हो जाने के बाद उसमें 50 ग्राम बेसन और चार पूसा कैप्सूल मिलाई जाती है.