नई दिल्ली/पटना :बिहार चुनाव में ध्रुवीकरण का माहौल बहुत ज्यादा है. ऐसे में लगता है कि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) ने चुनावी रणनीति की शतरंज की बिसात को इतनी सतर्कता से बिछाया है कि यादवों या मुसलमानों के किसी भी कदम से भाजपा को सबसे ज्यादा लाभ होगा.
बिहार विधानसभा चुनाव में हुए मतदान के आंकड़ें जातीय परिदृश्य और उसकी बनावट का स्वरूप बहुआयामी है, जिससे मुसलमानों और यादवों के पूरे वोट बैंक को राजग के खिलाफ एक तरफ ले जाना मुश्किल हो जाता है. प्रत्यक्ष रूप से नीतीश कुमार का मुसलमानों और ओबीसी के लिए किए गए दशकों के कल्याणकारी कार्य का असर पूरी तरह से गायब नहीं हुआ है, बल्कि भाजपा सरकार में नागरिकता संशोधन अधिनियम जैसे सरकार के कुछ फैसलों से कमजोर हो गया है. खासकर मुसलमान जिसे अपने हितों के खिलाफ मानते हैं.
मुसलमानों और अन्य पिछड़ों की नाराजगी को कम करने के लिए मुसलमानों और यादवों को पर्याप्त प्रतिनिधित्व देकर पिछड़े वर्ग के लोगों के साथ जाति संतुलन बनाए रखा गया है. राजग के साझीदार जदयू ने यादव और मुस्लिम दोनों के उम्मीदवारों को मैदान में उतारने के लिए तैयारी कर ली है. जाहिर है कि इसके साथ कुर्मी उम्मीदवार भी हैं, जिस समुदाय से नीतीश कुमार खुद हैं.
दरभंगा जिले में 27 फीसद मुसलमान हैं. वहां फराज फातिमी को मैदान में उतारना और बरेलवी विचार धारा के एक प्रमुख मुस्लिम चेहरा एमएलसी मौलाना गुलाम रसूल बरेलवी पिछले हफ्ते अपने कैडर से जेडीयू को वोट देने की अपील करना, इस तथ्य का प्रमाण है कि नीतीश का खेल पूरी तरह से योजनाबद्ध है. बरेलवी का बिहार के मुसलमानों के एक बड़े हिस्से पर अच्छा प्रभाव है.
जदयू ने अब तक 18 यादवों के साथ 11 मुस्लिम उम्मीदवारों की सूची जारी की है, जो राजद के प्रभाव को कम करने के लिए शक्तिशाली उपाय से कम नहीं है.
राजद नेता तेज प्रताप यादव के ससुर रहे चंद्रिका राय भी परसा विधानसभा क्षेत्र से जदयू के टिकट पर चुनाव लड़ रहे हैं. राय की बेटी को लालू के बेटे ने शादी के सिर्फ छह महीने बाद ही छोड़ दिया है. राय का परिवार राजद के साथ लंबे समय से संबंध रहा है. चंद्रिका राय के पिता दरोगा प्रसाद बिहार के मुख्यमंत्री थे.
जदयू ने राजद को एक और झटका जयवर्धन यादव के रूप में दिया है. जयवर्धन ने 2015 में राजद के टिकट पर पालीगंज सीट से चुनाव जीता था, लेकिन इस चुनाव में वह जदयू के टिकट पर लड़ेंगे. नीतीश राजद के कुछ प्रमुख चेहरों को राजद के ही खिलाफ खड़ा करने के लिए मोर्चेबंदी कर रहे हैं. यह वैसे लोग हैं, जिनका अपने समुदाय के बीच एक अच्छा प्रभाव है.
नीतीश के लिए मुस्लिम और यादव चुनाव लड़ रहे हैं. यह स्पष्ट संदेश है कि यह दोनों अत्यधिक असंगठित समुदायों में से हैं. नीतीश यादव और मुसलमान चेहरे लाकर विभाजनकारी राजनीति कर रहे हैं.
दूसरी ओर कांग्रेस और बीजेपी का ऊंची जातियों पर दावा बराबर है. हालांकि भाजपा के कट्टर हिंदुत्व रुख के बाद से कांग्रेस के लिए स्थिति दिनोंदिन कमजोर हो रही है. बिहार में मुसलमानों और अन्य जाति के वोटों को आकर्षित करने के लिए 1947 के बाद के चार दशक तक कांग्रेस की उदारवादी विचारधारा ने उनके लिए अच्छा काम किया था, जो अब नहीं है. यह केवल 1990 में उभरे गैर सवर्ण लालू यादव, नीतीश कुमार और रामविलास पासवान जैसे नेता थे, जिन्होंने सवर्णों के वोट की दिशा बदल दी, नहीं तो यह केवल एक पार्टी में जाते.
कांग्रेस के कैडर में अधिकांश ऊंची जाति से हैं, लेकिन राज्य की विधानसभा में बिना प्रतिनिधित्व दिए छोटी जातियों, ओबीसी और मुसलमानों से वफादारी की उम्मीद करेगी. कांग्रेस पार्टी ऊंची जाति के राजनेताओं को संरक्षण देती है. बिहार के चुनावी इतिहास में दरोगा प्रसाद राय और कर्पूरी ठाकुर जैसे मुख्यमंत्री इसके उदाहरण हैं कि किस तरह से छोटी जाति के राजनेता ऊंची जातियों की साजिशों के सामने कमजोर रहे. दो मुख्यमंत्रियों को निचली जातियों को सशक्त बनाने के प्रयासों की पहल करने पर अपने कार्यकाल को गंवाना पड़ा.
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यह बिहार में जातीय ध्रुवीकरण था, जिसकी वजह से चुनावी प्रक्रिया में लोगों की भागीदारी बढ़ी. कांग्रेस को मुख्य रूप से ऊंची जाति की राजनीति का तब लाभ हुआ जब मतदान कम हुआ करता था. चुनावों में मतदान करने वालों की संख्या बढ़ने के साथ राज्य में कांग्रेस का प्रभाव कम हो गया. जातीय लोकतांत्रिकीकरण के साथ चुनाव लड़ने वालों की संख्या भी बढ़ी.
अगर हम आंकड़ों के आधार पर देखें तो यह खंडित जनादेश है, जिसे राज्य की विधायिका के लिए जनता ने चतुराई से चुना है. यह इसी की हकदार है, क्योंकि राज्य की अकेली बहुमत वाली पार्टी ने भारत के सबसे पिछड़े राज्यों में शुमार बिहार के लोगों का हमेशा शोषण किया है.