बहुत अधिक उन्नति के नाम पर प्रकृति के संतुलन को बुरी तरह से नुकसान पहुंचाने वाले औद्योगिक देशों ने बहुत अधिक कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन किया. उनका यह पाप वैश्विक तापमान बढ़ने (ग्लोबल वार्मिंग) का कारण है, जिससे मानव जाति के लिए एक खतरा पैदा हो गया है. तबाही को टालने के लिए पेरिस समझौते में घोषणा की गई कि इस सदी के अंत तक बढ़ते वैश्विक तापमान को औद्योगिकीकरण के पहले की स्थिति से भी दो डिग्री सेल्सियस कम किया जाना चाहिए. हालांकि, आंकड़े बताते हैं कि दुनिया भर में मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड और कार्बन डाइऑक्साइड गैसें पिछले आठ वर्षों में इतनी अधिक जमा हो गईं हैं, उतनी पहले कभी नहीं देखी गईं. शुरुआत से ही गंभीर और प्रभावी सुधार के उपायों की कमी रही. आने वाली बड़ी तबाही की संयुक्त राष्ट्र की चेतावनियों को देखते हुए 2050 तक यूरोपीय संघ (ईयू) के साथ जापान और दक्षिण कोरिया कार्बन उत्सर्जन न्यूट्रलिटी (नेट जीरो) हासिल करने के लिए कमर कस रहे हैं.
चीन ने घोषणा की है कि वह 2060 तक उस स्तर को पा लेगा. अपनी तरफ से माइक्रोसॉफ्ट, ऐपल, फेसबुक और गूगल ने कहा है कि वे कार्बन उत्सर्जन की शून्य स्थिति प्राप्त करने के लिए प्रतिबद्ध है. भारत सरकार की नीति है कि पेरिस समझौते की सफलता की समीक्षा या 2023 में पेरिस करार तक उत्सर्जन नियंत्रण के अपने तय किए लक्ष्यों में कोई बदलाव नहीं करेगा. हाल में टाटा, रिलायंस, महिंद्रा, आईटीसी आदि जैसे 24 घरेलू निजी दिग्गज कंपनियों ने नौ अंकों के फॉर्मूले के साथ उत्सर्जन की दर 'नेट जीरो' करने का जो संकल्प लिया है, उसे केंद्रीय पर्यावरण मंत्री जावड़ेकर ने 'ऐतिहासिक' कहकर सराहना की है. औद्योगिक रूप से तत्काल सुधारात्मक उपायों को लागू करने के लिए उन संगठनों की पहल सराहनीय है, लेकिन कहा यह जाना चाहिए कि यह लंबी यात्रा में पहला कदम होगा. यदि केंद्र और राज्य सरकारें राष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक मतभेदों से ऊपर उठकर दृढ़ संकल्प और कानूनी अधिनियमों की सहायता लेकर कड़ी कार्रवाई की एक योजना लागू कर पाएं, तभी हम इस प्रमुख लक्ष्य तक पहुंच सकते हैं.