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पाकिस्तान में आजादी मार्च : एक विश्लेषण

पाकिस्तान में आजादी मार्च मौलाना फजलुर रहमान ने निकाला. इसमें दो लाख से अधिक लोगों ने भागीदारी की. मौलाना की मांग है कि इमरान खान इस्तीफा दें. उनके अनुसार इमरान पाकिस्तान को दिशा देने में असफल रहे हैं. साथ ही मौलाना ने पाक की राजनीति में अपनी प्रासंगिकता भी बरकरार रखी है. आइए जानते हैं, मौलाना का आजादी मार्च कितना सफल रहा. एक विश्लेषण सी उदय भास्कर का.

पाकिस्तान में आजादी मार्च

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Published : Nov 14, 2019, 11:06 AM IST

मौलाना फजलुर रहमान, पाकिस्तान की प्रमुख धार्मिक पार्टी, जमायत उलेमा-ए-इस्लाम (जेयूआई-एफ़) के नेता हैं, जिनको बहुत ही अस्थिर क्षेत्र में सबसे व्यावहारिक और लचीले राजनीतिक उत्तरजीवी के रूप में गिना जाता है. इनके नेतृत्व में 27 अक्टूबर को प्रधानमंत्री इमरान खान के खिलाफ आजादी मार्च निकाला गया, जिसमें यह अनुमान लगाया जा रहा है कि दो लाख से अधिक अनुयायी इस्लामाबाद में एकत्र हुए थे. मौलाना प्रधानमंत्री इमरान खान के इस्तीफ़े कि मांग कर रहे थे, क्योंकि उनका मानना है कि 2018 के चुनाव में गलत तरीकों को अपनाकर इमरान को जीत हासिल हुई थी.

शनिवार (9 नवम्बर) को आज़ादी मार्च के समापन के दो हफ़्तों बाद भी स्थिति जस की तस बनी हुई है. इमरान खान सरकार ने विपक्षी वार्ताकारों की टीम की रेहबर समिति के साथ अनिर्णायक वार्ता शुरू की और खराब मौसम - भारी बारिश और ठंड की रात के कारण मार्च से कुछ स्थानीय लोगों को घर लौटते देखा गया. घरेलू टिप्पणीकारों ने मार्च ठन्डे तरीके से समाप्त होने के रूप में वर्णित करते हुए फजलुर रहमान द्वारा प्रस्तुत चुनौती को खारिज कर दिया है, लेकिन इसका अधिक गहराई से विश्लेषण किया जाये तो अन्यथा दिखाई देगा.

वर्तमान में पाकिस्तान के मुख्य राजनीतिक दल, पीएमएल-एन (पाकिस्तान मुस्लिम लीग - नवाज) और पीपीपी (पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी) पूर्व पीएम नवाज शरीफ और पूर्व राष्ट्रपति आसिफ जरदारी पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों के कारण अलग-अलग राज्यों में बिखरी हुई हैं. इसके अलावा, शरीफ गंभीर रूप से बीमार हैं और उन्हें जेल से रिहा कर दिया गया है, जिसमें बताया गया है कि उन्हें चिकित्सा के लिए विदेश भेजा जा सकता है. यह भी स्पष्ट है कि नवाज़ शरीफ़ के भाई और बेटी के बीच पीएमएल-एन के भीतर नेतृत्व को लेकर खींचातानी चल रही है. यह कयास लगाया जा रहा है कि शरीफ की बेटी मरयम उपयुक्त समय पर पीएमएल-एन का नेतृत्व करेंगी.

पीपीपी भी असमान राजनीतिक एकीकरण की स्थिति में है. सीनियर जरदारी जिनके साथ स्वास्थ्य से जुड़े मुद्दे भी हैं, उच्च पद पर रहते हुए वित्तीय अभिरुचि के आरोपों के घेरे में हैं. उनके बेटे बिलावल भुट्टो, जिनके कन्धों पर पर उनकी मां बेनजीर और दादा जुल्फिकार अली भुट्टो की राजनीतिक विरासत को संभाले रखने का भार है, धीरे-धीरे विश्वसनीयता को बहाल करने का प्रयास कर रहे हैं और पीपीपी की पहुंच पाकिस्तान की तुच्छ राजनीति के बाधाओं के भीतर अब रावलपिंडी में सावधानीपूर्वक बनाने का काम कर रहें हैं जो जीएचक्यू सेना द्वारा प्रबंधित की जाती है.

इसी सन्दर्भ में फजलुर रहमान ने पाकिस्तान के प्रचलित राजनीतिक परिदृश्य में न केवल अपनी प्रासंगिकता स्थापित करने का प्रयास किया है, बल्कि अपने कट्टर प्रांतीय प्रतिद्वंद्वी - इमरान खान के साथ हिसाब बराबर करने कि कोशिश भी की है. यह याद दिलाना ज़रूरी है कि रहमान को अपने पिता के निधन के बाद 1980 तक जेयूआई के अमीर के रूप में नियुक्त किया गया था, जब वे सिर्फ 27 साल के थे और खैबर पख्तवा (केपी) प्रांत में डेरा इस्माइल खान का जिला उनका गढ़ था - जो उन्हें अपने पिता से विरासत में मिला था. रहमान का बलूचिस्तान प्रांत के पश्तून इलाकों में भी आधार है.

इसके विपरीत इमरान खान 1996 में ही राजनीति में शामिल हुए जब उन्होंने अपनी पार्टी पीटीआई (पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ) की शुरुआत की और अपेक्षाकृत कम समय में, केपी में अधिक विश्वसनीय राजनीतिक इकाई के रूप में उभरे. चोट के साथ अपमान को जोड़ने के लिए, 2018 के राष्ट्रीय चुनाव में, रहमान और उनकी पार्टी को पहली बार पराजित किया था और अपेक्षाकृत नए नेता, इमरान खान ने केपी के तत्कालीन शेर को बाहर का रास्ता दिखा दिया था.

इस प्रकार जुलाई 2018 से जब खान ने राष्ट्रीय चुनाव जीता और बाद में रावलपिंडी और खाकी में पुरुषों की मदद और समर्थन के साथ पाकिस्तान के पीएम के रूप में पदभार संभाला - फजलुर रहमान ने इस्लामाबाद में सरकार पर हमला किया और खान पर यहूदी लॉबी, सामान्य तौर पे पश्चिम और भारत का समर्थन करने के लिए मिलीभगत का आरोप लगाया.

इमरान खान से ही सबक लेते हुए, जिन्होंने 2016 में तात्कालिक प्रधानमंत्री के खिलाफ ऐसे ही मार्च का आयोजन किया था, रहमान के नेतृत्व में जेयूआई और उसके द्वारा तैयार किये हुए मदरसे के छात्र भी इस्लामाबाद के नाक में दम करने कि तय्यारी में हैं मगर ये प्रयास प्रधानमंत्री कि गद्दी छीनने के लिए काफी नहीं है.

पाकिस्तान वर्तमान में आतंकवादी समूहों के समर्थन में अपनी भूमिका के लिए काफी अंतरराष्ट्रीय जांच के अधीन है और हाल ही में एफ़एटीएफ़ (फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स) के निष्कर्षों ने इसे ग्रे सूची में रखा है - ऐसी फटकार जिसे पाकिस्तान की सेना नजरअंदाज नहीं कर सकती है. ऐसे में, और राजनीतिक अस्थिरता को बढ़ावा देना या समर्थन करना पाकिस्तान की सुस्त छवि और उसके परमाणु हथियारों के प्रबंधन की क्षमता के बारे में वैश्विक चिंता को बढ़ाएगा और इसलिए अनुमान है कि पाक सेना ने संकेत दिया कि फजलुर रहमान इस तरह बढ़त हासिल नहीं कर सकते हैं - और इस्लामाबाद की घेराबंदी करके तो हरगिज़ नहीं.

पाकिस्तान के भीतर ऐसी अफवाहें हैं कि जनरल बाजवा को दिए गए तीन साल के कार्य विस्तार से अपनी पदोन्नति की प्रतीक्षा कर रहे वरिष्ठ जनरलों में नाराजगी है और उनमें से कुछ ने रहमान को आज़ादी के मार्च का मार्ग अपनाने के लिए प्रोत्साहित किया है - लेकिन यह एक अंदाजा है.

अगर वास्तव में अगले कुछ दिनों में जेयूआई के नेतृत्व वाले मार्च को ख़त्म भी कर दिया जाता है, तो मौलाना फ़ज़लुर रहमान ने अपना मुख्य उद्देश्य हासिल कर लिया होगा - जो कि पाकिस्तान की राजनीति और सत्ता के बंटवारे में उनका एक ताकत के रूप में प्रासंगिक बने रहना है. यह एक ऐसा आला है कि उन्होंने दशकों से सींच कर तैयार किया है, जिसमें मामूली चुनावी संख्या और चुनावी आधार के बावजूद, जेयूआई-एफ़ ने अकेले ही रास्ता बनाया है और अंतिम समय में पाकिस्तान के प्रमुख राजनीतिक दलों को अपने साथ आने के लिए मजबूर कर दिया है.

एक स्थानीय व्यंग्य है कि जो पार्टी हमेशा पाकिस्तान में जीतती है, उसे जेजेयूएन कहा जाता है - या जिदं जेते उड्डे नाल - जिसका वह शिष्ट रूप में अनुवाद करता है: 'जो भी हमारे साथ होता है वह जीतता है.' बारिश हो या तूफ़ान हो, ऐसा प्रतीत होता है कि मौलाना फजलुर रहमान ने इस तथ्य को भलीभांति समझ लिया है.

(लेखक- सी उदय भास्कर, निदेशक, सोसायटी फॉर पॉलिसी स्टडीज, नई दिल्ली)

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