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पहले एलएसी तक पहुंचने में 14 दिन लगते थे, अब महज 1 दिन : लद्दाख स्काउट्स - भारतीय सेना की एलएसी पहुंचने की राह आसान

लद्दाख में एलएसी को लेकर भारत और चीन के बीच तनावपूर्ण शांति बनी हुई है. दोनों देशों के बीच कुछ अनसुलझे मुद्दों को लेकर कुछ इलाकों में संरचनात्मक विकास को लेकर दोनोें देश अक्सर आमने-सामने आ जाते हैं. इस इलाके में सीमा की रक्षा को लेकर लद्दाख स्काउट की अहम भूमिका होती है. वर्ष 1962 में जहां भारतीय सेना को एलएसी तक पहुंचने में 16 से 18 दिन का समय लगता था, वहीं अब सेना महज एक दिन में यहां पहुंच जाती है.

एलएसी
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Published : Jul 29, 2020, 8:43 PM IST

लेहःलद्दाख में भारत-चीन तनाव के बीचपूर्व सर्विस लीग लद्दाख क्षेत्र के अध्यक्ष सेवानिवृत्त सूबेदार मेजर सोनम मुरुप ने संरचनात्मक सुधार को लेकर बयान दिया है. उन्होंने भारतीय सेना के लद्दाख स्काउट्स रेजिमेंट में अपने दिनों को याद करते हुए कहा कि भारतीय सेना अब वह नहीं है, जो 1962 में हुआ करती थी.

सेवानिवृत्त सैनिक ने कहा कि 1962 के युद्ध के दौरान कमियां थीं और हमने अपनी जमीन खो दी थी, लेकिन अब भारतीय सेना, वायुसेना और नौसेना पूरी तरह से प्रशिक्षित, सशस्त्र और सुसज्जित है, लेकिन इससे भी अधिक अब हमारे पास सड़कें, पुल और अन्य बुनियादी ढांचा है, जो इससे पहले हमारे पास नहीं था.

'हिंदी-चीनी भाई भाई' के नारे को खारिज करते हुए, जो 1962 के युद्ध से पहले लोकप्रिय था, मुरूप ने कहा, "हम इसे अब और नहीं कहेंगे. इसके बजाय सभी सैनिक केवल 'भारत माता की जय' और लद्दाखी में 'की सो सो लेरगेलो' (भगवान की विजय) के नारे लगाएंगे और चीन को मात देंगे. यह उत्साह न केवल सैनिकों, बल्कि सेवानिवृत्त सैनिकों के बीच भी जिंदा है. 84 साल की उम्र में भी लद्दाख स्काउट्स के हमारे सैनिकों के पास वापस लड़ने की ताकत और क्षमता है.

मुरूप 1977 में सेना में शामिल हुए थे और 2009 में सेवानिवृत्त हुए. उन्होंने एक सैनिक के रूप में अपने अनुभवों को याद करते हुए कहा कि वह और अन्य लोग श्योक नदी के रास्ते हथियार, गोला-बारूद, राशन और अन्य सामान लेकर पोर्टर्स (कुली के तौर पर सेना के सहायक) और टट्टू (छोटा घोड़ा) के साथ चले. उन्होंने बताया कि श्योक नदी को कठिन इलाके और उग्र प्रवाह के कारण 'मौत की नदी' के रूप में जाना जाता है. श्योक सिंधु नदी की एक सहायक नदी है, जो उत्तरी लद्दाख से होकर बहती है और गिलगित-बाल्टिस्तान में प्रवेश करती है, जो 550 किलोमीटर की दूरी तय करती है.

मुरूप ने कहा, 'कभी-कभी हमें इसे एक दिन में पांच बार भी पार करना पड़ता था. कुल मिलाकर हमें नदी को 118 बार पार करना पड़ता था. इसके परिणामस्वरूप हमारी त्वचा खराब हो जाती थी, लेकिन हम आगे बढ़ते रहते थे. यहां तक कि 1980 के दशक तक हमें 12 से 15 दिन लग जाते थे.

उन्होंने कहा कि आज चीजें बदल गई हैं. पूर्व सैन्य दिग्गज ने कहा कि वर्तमान सरकार ने सड़कें और पुल बनाए हैं. गलवान घाटी पुल 2019 में पूरा हो गया. अब एक या दो दिन में ही सैनिक आराम से वहां पहुंच सकते हैं. हथियारों और राशन को ले जाने के लिए किसी भी तरह के टट्टू, घोड़े या पोर्टर्स की जरूरत नहीं है.

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उन्होंने तर्क देते हुए कहा कि उस बिंदु पर चीन आत्म-आश्वस्त था, लेकिन अब वो चिंतित है कि क्षेत्र में भारतीय सेना की तैनाती और बुनियादी ढांचे में कोई कमजोरी नहीं है. लद्दाख स्काउट्स के सेवानिवृत्त सैनिक ने कहा कि इसलिए वे आक्रामकता के साथ अपनी निराशा व्यक्त कर रहे हैं. हमें चीन पर बिल्कुल भी भरोसा नहीं करना चाहिए.

लद्दाख स्काउट्स रेजिमेंट को 'स्नो वारियर्स' (बर्फ के योद्धा) और भारतीय सेना की 'आंख और कान' के तौर पर जाना जाता है, जिसकी लद्दाख में पांच लड़ाकू बटालियन हैं. पहाड़ी युद्ध में विशेषज्ञ लद्दाख स्काउट्स भारतीय सेना की सबसे सुशोभित रेजिमेंटों में से एक है, जिसके पास 300 वीरता पुरस्कार और प्रशंसा पत्र हैं, जिनमें महावीर चक्र, अशोक चक्र और कीर्ति चक्र शामिल हैं.

(आईएएनएस)

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