वाराणसी : बनारस संस्कृति और सभ्यता के साथ परंपराओं को संजोकर रखने वाला एक अद्भुत धागा है, जो न जाने कितने मोतियों को खुद में पिरो कर रखे हुए है. होली हो या दीपावली हर त्योहार में वाराणसी के इन मोतियों का एक अद्भुत ही रंग और चमक देखने को मिलती है. माला के रूप में पिरोए जाने वाले इन सांस्कृतिक और परंपरागत मोतियों को संजोकर रखने वाली काशी में कार्तिक के महीने में होने वाली एक परंपरा का निर्वहन आज सदियों से किया जा रहा है. जिसकी शुरुआत शनिवार को धर्म नगरी में की गई.
पूरे कार्तिक मास तक जलाए जाते हैं दीप
वाराणसी के प्राचीन और विश्व प्रसिद्ध दशाश्वमेध घाट पर गंगोत्री सेवा समिति की ओर से पूरे कार्तिक मास तक जलाए जाने वाले आकाशदीप का शुभारंभ शनिवार को किया गया. लंबे-लंबे बांसों पर बांस की बनी डोलचियों में रख कर जलने के बाद दीपक को आकाश की तरफ भेजे जाने की यह सदियों पुरानी परंपरा काशी में आज भी निभाई जा रही है. काशी की इस परंपरा में हर बार पूर्वजों और शहीदों को नमन करते हुए एक माह तक उनकी स्मृति में आकाश दीपकों को जलाया जाता है. इस बार भी इसकी शुरुआत इसी रूप में की गई.
बिकरु कांड के शहीदों को किया गया नमन
वाराणसी के दशाश्वमेध घाट पर गंगोत्री सेवा समिति की तरफ से कानपुर के बिकरु कांड में शहीद हुए कॉन्स्टेबल जितेंद्र पाल, क्षेत्राधिकारी देवेंद्र मिश्र, सब इंस्पेक्टर महेश कुमार यादव, सब इंस्पेक्टर ने गुलाल सहित 10 पुलिस वालों की स्मृति में आकाश दीपक जलाए. इन शहीदों ने दुर्दांत अपराधी विकास दुबे से लड़ते हुए अपने प्राणों की आहुति दे दी थी. शहीदों के प्रति जलाए गए इन आकाश दीपक के जरिए इस साल पुलिस और पीएसी के जवानों को याद किया जा रहा है. हर साल सेना में बॉर्डर पर शहीद होने वाले जवान और नक्सली हमले में जान गंवाने वाले हमारे जांबाजों की याद में आकाश दीपक हर साल गंगा घाट पर काशी में जलाए जाते हैं. इस बार अश्विन मास की पूर्णिमा को इसकी शुरुआत की गई, जिसका समापन कार्तिक मास की पूर्णिमा यानी देव दीपावली को किया जाता है.
काशी के गंगा घाटों पर जलने लगे आकाशदीप क्या है आकाशदीप
दरअसल, आकाशदीप क्या है और इसके पीछे के पौराणिक महत्व को जानना भी बेहद जरूरी है. गंगा तट, सरोवर, तालाबों के किनारे घर की छतों तक आकाशदीप जलाने की प्रथा काशी में सदियों पुरानी मानी जाती है. मान्यता है कि पंचनंद तीर्थ के रूप में पूजित पंचगंगा घाट पर महारानी अहिल्याबाई होल्कर ने हजारों दीपों से अलंकृत गुलाबी पत्थरों का एक अद्भुत स्ट्रक्चर तैयार करवाया था. इसकी स्थापना आज से 240 वर्ष पूर्व 1780 ईस्वी में की गई थी. इस हजार दीपक पर कार्तिक के पूरे एक महीने तक दीप जलाकर शहीदों और पूर्वजों को श्रद्धांजलि और नमन करने की परंपरा की शुरुआत उसी वक्त से हुई. इसके बाद हर साल काशी के पंचगंगा घाट, दशाश्वमेध घाट, मणिकर्णिका घाट, गायघाट, केदारघाट समेत अन्य कई घाटों पर आकाश दीप जलाए जाने की परंपरा का निर्वहन किया जा रहा है. यह परंपरा अश्विन पूर्णिमा से लेकर कार्तिक पूर्णिमा तक अनवरत एक माह तक चलती रहती है. जिसकी अलौकिता देखते ही बनती है. लंबे-लंबे बांस पर रस्सी के सहारे बंधी बांस की डोलचियों में जल रहे दीपक को ऊपर तक ले जाया जाता है. मान्यता है कि पूर्वजों और शहीदों के स्वर्ग मार्ग को प्रशस्त करने के लिए इन आकाशदीपकों को प्रज्ज्वलित किया जाता है.