हैदराबाद : बाल गंगाधर तिलक एक ऐसा नाम जिसने अपने लेखन से अंग्रेजों को हिला कर रख दिया. उनके लेखन से अंग्रेजों में इतना खौफ था कि उन्हें जेल भेज दिया. वह एक राष्ट्रवादी, शिक्षक, समाज सुधारक, वकील और एक स्वतंत्रता सेनानी थे. अपने राजनीतिक लेखन के कारण वह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के पहले लोकप्रिय नेता थे. आज बाल गंगाधर तिलक की 100वीं पुण्यतिथि है. उनका निधन एक अगस्त 1920 को मुंबई में हुआ था.
ब्रिटिश औपनिवेशिक प्राधिकारी उन्हें भारतीय अशान्ति के पिता कहते थे. उनका मराठी भाषा में दिया गया नारा 'स्वराज्य हा माझा जन्मसिद्ध हक्क आहे आणि तो मी मिळवणारच' (स्वराज ही मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर ही रहूंगा) बहुत प्रसिद्ध हुआ.
तिलक भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के पहले ऐसे नेता थे, जो अपने राजनीतिक लेखन के लिए जेल गए. वह तिलक ही थे जिनके लेखन से प्रभावित होकर ब्रिटिश पत्रकार वैलेंटाइन चिरोल ने तत्कालीन शासकों की तिलक को भारतीय अशान्ति के पिता कहने पर आलोचना की थी.
- तिलक 1890 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सदस्य बने. हालांकि, वह ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन से लड़ने के लिए पार्टी के उदारवादी दृष्टिकोण के कट्टर आलोचक थे.
- इसके बाद वह 1916 में फिर से कांग्रेस में शामिल हुए. उन्होंने ब्रिटिश अधिकार कार्यकर्ता, शिक्षाविद और परोपकारी एनी बेसेंट के साथ मिलकर काम किया.
- बेसेंट का साथ मिलने से उन्हें अखिल भारतीय होम रूल लीग के स्वराज के लिए अभियान चलाने में मदद मिली. इस दौरान उन्होंने किसानों को जुटाने के लिए गांवों की यात्रा की.
- इसी वर्ष भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन में उन्होंने एलान किया कि स्वराज भारतीयों का जन्म सिद्ध अधिकार है.
- उन्होंने लिखा कि अब स्वराज की मांग करने का समय आ गया है. उन्होंने कहा कि वर्तमान प्रशासन की प्रणाली देश के लिए विनाशकारी है, इसे अवश्य समाप्त करना चाहिए.
- इसके बाद तिलक का कद राष्ट्रीय नेता के रूप में बढ़ता गया. उनके कद का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि उनके द्वारा चलाए गए होम रूल आंदोलन ने 1917 में अंग्रेजों को मोंटागु घोषणा का मसौदा तैयार करने के लिए मजबूर कर दिया.
तिलक का योगदान
तिलक द्वारा देशभर में अंग्रेजों का बहिष्कार, स्वदेशी व राष्ट्रीय शिक्षा और निष्क्रिय प्रतिरोध का यह फोरफोल्ड कार्यक्रम प्रस्तुत किया गया था.
कार्यक्रम मुख्य रूप से एक आर्थिक हथियार के रूप में शुरू हुआ, लेकिन जल्दी से इसका राजनीतिक महत्व दिखाई पड़ने लगा. कार्यक्रम के पीछे की प्रेरणा शुरू में बंगाल के ब्रिटिश विभाजन की प्रतिक्रिया थी, लेकिन यह जल्द ही एक अखिल भारतीय आंदोलन में बदल गई.
विभाजन और एकता
तिलक भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में एक उदारवादी के रूप में शामिल हुए. इतना ही नहीं तिलक ने गोपाल कृष्ण गोखले के उदारवादी विचारों का विरोध किया और बंगाल में साथी भारतीय राष्ट्रवादियों बिपिन चंद्र पाल और पंजाब में लाला लाजपत राय का समर्थन किया. उन्हें लाल-बाल-पाल विजय के रूप में जाना जाता था.