100 साल पहले 10 जनवरी को ही देशों के समूह ने साथ आकर काम करना शुरू किया था. हालांकि, देशों का यह समूह द्वितीय विश्व युद्ध को रोकने में नाकामयाब रहा, लेकिन इसकी रचना ने संयुक्त राष्ट्र की कई मौजूदा संस्थाओं के ढांचे की रचना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. अंतर्राष्ट्रीय साझेदारी का सिद्धांत, इस विश्व समूह के मूलभूत ढांचे का हिस्सा था, और इसी की कड़ी में बने संयुक्त राष्ट्र की रचना भी इसी सिद्धांत के तहत हुई. अप्रैल 1946 में समूह के देशों ने जिनीवा में एकत्रित होकर अपनी सारी ताक़तें और काम संयुक्त राष्ट्र को हस्तांतरित कर दिये थे.
जून 1919 में हुई वर्सेल्स की संघि का भारत भी सदस्य था (इसके सम्मान में भारतीय डाक विभाग ने अगस्त 2019 में एक स्टैंप भी जारी किया था) और इसके चलते इस समूह के संस्थापक सदस्यों में भारत शामिल था. इस समूह में भारत एक मात्र ऐसा देश था जिसपर उसी देश के लोगों का शासन नहीं था, इसलिये इतिहासकार भारत की सदस्यता को विसंगतियों में विसंगति करार देते हैं. यहां इतिहासकार यह भी मानते हैं कि इसके बावजूद देशों के समूह में भारत को अन्य देशों की ही तर्ज पर अधिकार और जिम्मेदारियां हासिल थी.
इस समूह के जरिये बहुपक्षीय रिश्तों में भारत के दाखिले के दो पहलू आज के भारत की विदेश नीति में भी जगह पाते हैं. इसमें पहला है, भारत की शांति और युद्ध रोकने की तरफ प्रतिबद्धता. 1927 में, पैरिस में हुई, जंग को नाजायज घोषित करने वाली ब्लॉग-ब्राइंड संधि (जिसे शांति संधि भी कहा जाता है) में शामिल देशों में भारत ने भी हस्ताक्षर किये थे. इस संधि को अमली जामा पहनाने के लिये, अमरीका के गृह सचिव, केलॉग को 1929 में नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित किया गया था.
दूसरा पहलू है, आर्थिक-सामाजिक विकास के लिये भारत का नवनिर्मित बहुपक्षीय ढाँचे में शामिल होना. वर्सेल्स की संधि के बाद बने अंतर्राष्ट्रीय लेबर ऑर्गेनाइजेशन(आईएलओ) में भारत 1922 से सदस्य है. और आजाद भारत में भी श्रम मंत्रालय ने इसे काफी प्राथमिकता दी है. आईएलओ के 28 सदस्य देशों में से भारत 10 स्थाई सदस्यों में शामिल रहा है, और भारत को हमेशा ही, औद्योगिक महत्व के लिहाज़ से सबसे ऊपर रखा गया है. भारत के लिहाज से महत्वपूर्ण मुद्दे, जिन पर आईएलओ में बहस और विचार हुआ है उनमें, मजदूरों के काम करने के घटों और समुद्र में काम करने वाले कर्मचारियों के लिये खास इंतजाम शामिल हैं.