नई दिल्ली : ऐतिहासिक दक्षिण चीन सागर (South China Sea) पर अंतरराष्ट्रीय ट्रिब्यूनल के फैसले की आज (12 जुलाई) 5वीं वर्षगांठ है, जिसने फिलीपींस से जुड़े दक्षिण चीन सागर क्षेत्रीय विवाद में चीन के दावों को कानूनी रूप से अमान्य घोषित कर दिया था. लेकिन चीन लगातार इस आदेश की अनदेखी करता आया है और समुद्री विवादों को निपटाने से इनकार करता रहा है.
सी कन्वेंशन (Sea Convention) के 1982 के कानून के तहत गठित मध्यस्थ न्यायाधिकरण ने चीन के इस दावे को खारिज कर दिया कि उसने दक्षिण चीन सागर के अधिकांश हिस्से पर अधिकार बनाए रखा है. एक क्षेत्र के रूप में दक्षिण चीन सागर का अत्यधिक महत्व है और अंतरराष्ट्रीय समुदाय के लिए इसका अत्यधिक आर्थिक और भू-रणनीतिक महत्व है, क्योंकि दुनिया का एक तिहाई समुद्री परिवहन इससे होकर गुजरता है.
भारत के मामले में, लगभग 200 बिलियन डॉलर का भारतीय व्यापार दक्षिण चीन सागर से होकर गुजरता है. इसलिए इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता है कि समुद्र की स्वतंत्रता राष्ट्रों के लिए एक मजबूत हित है और वैश्विक शांति व समृद्धि के लिए महत्वपूर्ण है.
भारत सहित अंतरराष्ट्रीय समुदाय लंबे समय से नियम-आधारित समुद्री व्यवस्था से लाभान्वित हुआ है. लेकिन चीन के बढ़ते जुझारूपन और दक्षिण चीन सागर में उसके अनिश्चितकालीन दावे ने नियम-आधारित समुद्री व्यवस्था को बड़े खतरे में डाल दिया है.
दक्षिण चीन सागर में भारत के लिए क्या दांव पर है, यह जानने के लिए ईटीवी भारत ने एक विश्लेषक से बात की?
ईटीवी भारत से बात करते हुए, ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन (नई दिल्ली) में स्ट्रैटेजिक स्टडीज के प्रमुख प्रोफेसर हर्ष वी पंत ने कहा, 'दक्षिण चीन सागर में भारत की बहुत हिस्सेदारी है क्योंकि भारत नौवहन की स्वतंत्रता में विश्वास करता है और एक देश के रूप में मानता है कि इस सिद्धांत को सिद्धांत के साथ-साथ व्यवहार में भी देखा जाना चाहिए. समुद्र की स्वतंत्रता के सिद्धांत के आधार पर हमने वैश्विक व्यवस्था का निर्माण किया है और भारत इस व्यवस्था का लाभार्थी रहा है.'
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उन्होंने कहा, चीन भी इस व्यवस्था का लाभार्थी रहा है. इसलिए, भारत के लिए, यह महत्वपूर्ण है कि इसे बनाए रखा जाए और बीजिंग के दावों को खारिज कर दिया जाए, क्योंकि यह चीन जैसे देशों का भी मामला है जो इस क्षेत्र के कुछ छोटे देशों के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय नियमों के उल्लंघन में समुद्री क्षेत्रों का दावा करते हैं. यह अंतरराष्ट्रीय समुदाय के सामने भी सवाल है कि वह एक शक्तिशाली देश के खिलाफ कमजोर और छोटे राष्ट्रों की मदद करे.