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Bihar Politics: कभी बिहार में काफी मजबूत थी भाकपा माले, लेकिन सांस्कृतिक विंग कमजोर पड़ने का हुआ नुकसान

राजधानी पटना में लोकतंत्र बचाओ देश बचाओ महारैली ( Loktantra Bachao Desh Bachao Maharally) के जरिए भाकपा माले ने एक बार फिर ये संदेश देने की कोशिश की है कि वह आने वाले समय में पार्टी को मजबूत करने पर काम करेगी. हालांकि कभी माले गरीब-गुरबे की पार्टी हुआ करती थी और उसे आम जनमानस का समर्थन भी मिलता था लेकिन वक्त के साथ पार्टी का सांस्कृतिक विंग कमजोर पड़ता गया, जिसका खामियाजा पार्टी को बिहार में भुगतना पड़ा.

भाकपा माले का राष्ट्रीय महाधिवेशन
भाकपा माले का राष्ट्रीय महाधिवेशन

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Published : Feb 16, 2023, 8:17 AM IST

पटना:भाकपा माले(CPIML in Bihar) हमेशा से कैडर बेस पार्टी रही है और इसका सांस्कृतिक विंग की भूमिका खास रही है. बिनोद मिश्र जब तक पार्टी के महासचिव रहे, तब तक माले का सांस्कृतिक विंग बहुत की मजबूत था और उस दौरान इस विंग की भूमिका की वजह से पार्टी का न केवल जनाधार बढ़ा, बल्कि पार्टी के विचारों और सिद्धांतों का व्यापक प्रचार प्रसार भी हुआ लेकिन बाद के दिनों में बिहार में पार्टी कमजोर होती गई. हालांकि 2020 के विधानसभा चुनाव में पार्टी ने शानदार प्रदर्शन किया और मजबूती से उभरकर सामने आई.


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भाकपा माले का सांस्कृतिक विंग रहा है पार्टी का बैक बोन:भाकपा माले भले ही धरना प्रदर्शन और विरोध के लिये स्थापित पार्टी के रूप में अपनी पहचान बनायी लेकिन इसके पीछे बुद्धिजीवियों, शिक्षाविदों और कलाकारों की भूमिका भी महत्वपूर्ण है. 1980 के दशक में पहले ऐसे छोटे समूहों में बुद्धिजीवियों का कई मंच बिहार में कार्य करता था, जो अपने श्रान और विद्वता के आधार पर लोगों से सीधा जुडकर संवाद स्थापित करता था. बंगाल के बाद यदि बात करें तो भाकपा माले का सबसे बड़ा गढ़ बिहार का शाहाबाद बना, जिसमें सहार और संदेश का इलाका शामिल था. इस इलाके में युवा नीति नामक भाकपा का सांस्कृतिक विंग सबसे सक्रिय था. इसके बाद 1978 में राज्य स्तर पर नव जनवादी सांस्कृतिक मोर्चा और 1982 में राष्ट्रीय स्तर पर जन संस्कृति मंच बना. इसी विंग का एक दस्ता हरावल दस्ता पार्टी के विचारों को अगुआई करता था और आम लोगों की न केवल समस्या सुनता था, बल्कि अपने विचारों के गरीबों, शोषितों और पीड़ितों को उनके अधिकारों के प्रति जागरूक भी करता था.

सांस्कृतिक विंग की वजह से भाकपा माले का बिहार में जनाधार बढ़ा:भाकपा माले लिबरेशन पर प्रतिबंध था और अगुआई बिनोद मिश्र कर रहे थे. इस दौरान बिनोद मिश्र को लगा कि पार्टी संसदीय प्रणाली में भी जाना चाहिए. इसके लिए उन्होंने अपने सांस्कृतिक विंग का सहारा लेकर भारतीय जन मोर्चा यानी आईपीएफ के नाम से एक पार्टी को चुनाव में उतारा. उसके पहले अध्यक्ष के रुप में नागभूणण पटनायक और सचिव के रूप में वर्तमान भाकपा माले महासचिव दीपांकर भट्टाचार्य को संसदीय प्रणाली के लिए जूझने की जिम्मेवारी दी गयी. इस दौरान पार्टी की सांस्कृतिक विंग गरीबों की लड़ाई अपने अंदाज से लड़ता रहा और लोगों को जागरूक करता रहा.

सांस्कृतिक विंग का फायदा 1989 से मिलना शुरू हुआ:1989 में भोजपुर से रामेश्वर प्रसाद लोक सभा के लिए चुने गये और शाहाबाद इलाके में आईपीएफ का बोलबाला स्थापित हो गया. 1990 के चुनाव में पहली बार आईपीएफ के छह विधायक बिहार विधान सभा पहुंचे और कांग्रेस से सत्ता छीनने के बाद लालू यादव की सरकार को भाकपा माले का बाहर से समर्थन मिला. हालांकि लालू प्रसाद यादव ने गद्दी पर बैठते ही भाकपा माले के कैडर को तोड़ना शुरू कर दिया.

लालू ने पहुंचाया माले का नुकसान: लालू प्रसाद गद्दी पर बैठते ही गरीबों, दलितों और शोषितों के लिए काम करने का हवाला देने लगे. इस दौरान भाकपा माले के सांस्कृतिक विंग का सुदूर गांव देहात से सम्पर्क कम हो चुका था. बिहार के कई इलाकों में सामूहिक नरसंहार हो रहा था और इसी का फायदा उठाकर लालू प्रसाद यादव गरीबों के मसीहा के रूप में खुद को स्थापित करने कामयाब हो गये. जन संस्कृति मंच के सक्रिय सदस्य रूप में काम कर चुके वरिष्ठ पत्रकार नवेन्दु जी की मानें तो सांस्कृतिक विंग के जरिए गरीबों, शोषितों और पीड़ितों के लिए सीधा संवाद होता था जो लालू प्रसाद की सरकार के दौरान कमजोर पड़ने लगी और इसी का फायदा समाजवादी नेताओं को मिला और लालू प्रसाद यादव, रामविलास पासवान और नीतीश कुमार जैसे नेता गरीबों को जातियों में बांटने में कामयाब रहे.

लालू-नीतीश की सरकार के दौरान माले कमजोर हुआ: लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार के कार्यकाल में भाकपा माले अपने पुराने अंदाज में जनता से संवाद करने के बजाय अन्य पार्टियों की तरह की संवाद स्थापित करने लगी. इसका फायदा इन दोनों नेताओं ने उठाया और सरकारी अनुदान और फायदे का लोभ देकर अपनी ओर खींचने में कामयाब रहे. इस दौरान भाकपा माले के इक्के दुक्के नेता ही चुनाव जीत पाये और हद तो तब हो गयी जब 2010 के चुनाव में एक भी सदस्य विधानसभा नहीं पहुंच पाया.

2020 के चुनाव में भाकपा माले ने रणनीति में बदलाव किया: वर्ष 2020 चुनाव के पहले भाकपा माले ने अपने रणनीति में बदलाव किया. आम तौर किसी भी गठबंधन से खुद को अलग रखने वाली पार्टी महागठबंधन का हिस्सा बनी. साथ ही संवाद स्थापित करने की पुरानी परिपाटी को फिर से लागू किया गया. 2020 के चुनाव में भाकपा माले के 12 नेता विधान सभा पहुंचे. वरिष्ठ पत्रकार अरुण अशेष की मानें तो भाकपा माले की जनता से संवाद स्थापित करने का जो पुराना तरीका था, वही सबसे कारगर था और और सांस्कृतिक विंग के कमजोर पड़ने का नुकसान हुआ है. अब एक बार फिर भाकपा माले अपने पुराने सांस्कृतिक विंग को मजबूत करने की कोशिश में जुट गई है.

सांस्कृतिक विंग के क्या थे फायदे और कौन लोग होते थे इसमें शामिल: भाकपा माले के सांस्कृतिक विंग में समाज के बुद्धिजीवी, शिक्षक, पत्रकार और पढ़े-लिखे लोग इसके लिए काम करते थे. ये लोग जनता से सीधा संवाद कर उनके अधिकारों को बताने के अलावा उनकी समस्याओं को उजागर कर सरकार तक पहुंचाते थे. इसके लिए धरना-प्रदर्शन का भी खूब सहारा लिया जाता था. इससें आम जनता सीधा पार्टी से कनेक्ट रहती थी और कैडर के रूप में कार्य करती थी. 1990 और 2000 के दशक में माले ने भी अपने स्वरूप बदला और अन्य पार्टियों की तरह की कार्य किया. नतीजतन जनता जो कैडर वोटर के रूप से जुड़ी थी, उनका मोह धीरे धीरे भंग हो गया.

पुरानी परिपाटी को जिंदा करने में जुटी भाकपा माले: 2020 के चुनाव में जीत के बाद भाकपा माले अन्य अन्य पार्टियों की तरह सोशल मीडिया के जरीये संवाद तो स्थापित कर रही रही है लेकिन सीधा संवाद पर भी जोर देने लगी है. पार्टी की ओर से निर्देश दिये गये है कि पीड़ितों की समस्या मोबाइल पर सुनने के बाद तत्काल उस इलाके के कैडर उनसे सीधा संवाद करें और जरुरत पड़े तो उनकी समस्याओं को उजागर कर धरना प्रदर्शन करें. पार्टी एक बार फिर आम लोगों के बीच उनके अधिकारियों के प्रति जागरूक करने और न्याय दिलाने के लिए सांस्कृतिक विंग का मजबूती से सहारा लेने में जुट गयी है. इस बार 11वें अधिवेशन के पहले की रैली में इसी मूल मंत्र के साथ पार्टी अपना काम शुरू कर चुकी है.

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