अंबाला: पहले के जमाने के लोग मिट्टी के बर्तनों को तवज्जो देते थे. वे मिट्टी के बर्तन में न सिर्फ खाना पकाते थे बल्कि उसी बर्तन में खाना खाते भी थे. साथ ही लोग मिट्टी के बर्तनों का इस्तेमाल पर्व त्यौहार में भी करते थे. हालांकि बदलते दौर के साथ मिट्टी के बर्तन का इस्तेमाल लोगों ने कम कर दिया है. लोगों ने मिट्टी के बर्तनों के विकल्प में स्टील और प्लास्टिक के बर्तनों चुन लिया है.
विलुप्त ना हो जाए ये कला! अब लोग स्टील के बर्तनों का इस्तेमाल ज्यादा करते हैं. कम इस्तेमाल होने के कारण कुम्हार भी मिट्टी के बर्तनों को बनाना कम कर दिए हैं. उनका मानना है कि आधुनिकता के इस दौर में मिट्टी के बर्तनों का अस्तित्व खत्म होता जा रहा है.
दिवाली पर दीए की बढ़ी डिमांड:हालांकि इन दिनों लोगों का फिर से मिट्टी के बर्तनों की तरफ रुझान बढ़ा है. लोग एक बार फिर मिट्टी के बर्तनों की खरीदारी कर रहे हैं. साथ ही लोग खाना पकाने के लिए भी मिट्टी के बर्तनों को यूज कर रहे हैं. वहीं, दिवाली में मिट्टी के दीए के साथ लोग बर्तनों की भी खरीदारी कर रहे हैं. दीए के साथ मिट्टी के बर्तनों की बढ़ती डिमांड के कारण कुम्हारों को इस साल दिवाली पर अच्छे मुनाफे की उम्मीद है.
नई पीढ़ी नहीं बनाना चाहती मिट्टी के बर्तन:मौजूदा समय में मिट्टी के बर्तनों की मांग को लेकर ईटीवी भारत ने अंबाला के कुम्हारों से बातचीत की. कुम्हारों ने बताया कि मिट्टी के बर्तन बनाने की परंपरा अब लुप्त होने की कगार पर है. इसका कारण है कि इसमें मेहनत ज्यादा और मुनाफा कम है. इसी कारण नई पीढ़ी इस परंपरा को आगे बढ़ाने से बच रही है. नई पीढ़ी का मानना है कि इसमें मुनाफा नहीं है.
जो नई पीढ़ी है, वो इस काम को नहीं करना चाहती, क्योंकि इस काम में मेहनत ज्यादा और इनकम कम है. इस काम में अब कुछ नहीं रहा. पहले हम लोगों को आस-पास से कम दामों में मिट्टी मिल जाता था, लेकिन अब बहुत दूर से मिट्टी लेकर आना पड़ता है. वो भी महंगा हो गया है. आग जलाने के लिए जो उपले लेकर आते है वो भी काफी महंगे पड़ते हैं, जिस वजह से काफी खर्चा आ जाता है. इसलिए नई पीढ़ी इस काम में हाथ ही नहीं लगाना चाहती.-यशोदा, कुम्हार