छतरपुर: बुंदेलखंड में मोनिया नृत्य में बुंदेली लोक संस्कृति की झलक मिलती है. दीपावली के बाद परेवा और भाई दूज पर इस नृत्य की अनोखी छटा पूरे अंचल में बिखरती है. आकर्षक परिधान में कलाकारों की टोलियां गांव-गांव में नृत्य की कला का प्रदर्शन करते हैं. नृत्य की ये कला मार्शल आर्ट के जैसी है, जिसमें लाठी का इस्तेमाल भी मार्शल आर्ट से कम नहीं है. शुक्रवार को खजुराहो के मतंगेश्वर मंदिर में कई गांवों के मोनिया पहुंचे और जमकर कला दिखाई.
दिवाली के दूसरे दिन किया जाता है मोनिया नृत्य
बुन्देलखंड में दिवारी नृत्य की एक अलग ही परंपरा है, जो दिवाली के दूसरे दिन उत्साह और उमंग के साथ मनाई जाती है. मोनिया नृत्य बुंदेलखंड में विशेषकर अहीर (यादव) जाति के द्वारा किया जाता है. ऐसा नहीं है कि इसमें केवल वही शामिल हो सकते हैं. इस नृत्य में अन्य जाति के लोग भी बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हैं. विशेष रूप से यह नृत्य दीपावली के दूसरे दिन किया जाता है. पुरुष अपने पारंपरिक पहनावे को पहनकर मोर के पंखों को लेकर एक घेरा बनाकर नृत्य करते हैं. बुंदेलखंड का सबसे प्राचीन नृत्य मोनिया, जिसे सेहरा और दीपावली नृत्य भी कहते हैं.
जानिए क्यों किया जाता है मोनिया नृत्य?
बुंदेलखंड के खजुराहो में मोनिया ने मौन होकर नृत्य किया और इसको खजुराहो के लोगों ने जमकर आनंद लिया. मान्यता के अनुसार, जब श्रीकृष्ण यमुना नदी के किनारे बैठे हुए थे, तब उनकी सारी गायें कहीं चली गईं. प्राणों से भी अधिक प्रिय अपनी गायों को न देखकर भगवान श्री कृष्ण दुखी होकर मौन धारणकर बैठ गए, जिसके बाद सभी ग्वाल (दोस्त) परेशान होने लगे. फिर ग्वालों ने सभी गायों को खोज निकाला और उन्हें लेकर श्रीकृष्ण के पास आ गए. गायों को अपने पास देखकर भगवान कृष्ण ने अपना मौन तोड़ा. तभी से यह परंपरा चली आ रही है. मोनिया लोग मौन व्रत रखकर नृत्य करते हुए 12 गांवों की परिक्रमा लगाते हैं और मंदिर-मंदिर जाकर भगवान के दर्शन करते हैं. एक व्यक्ति को लगातार 12 सालों तक मोनिया बनना पड़ता है.