उत्तरकाशीः करीब 2600 मीटर की ऊंचाई पर स्थित हर्षिल को प्रकृति ने असीम प्राकृतिक सौंदर्य से नवाजा है तो वहीं, हर्षिल घाटी का अपना एक स्वर्णिम इतिहास भी है. जिसमें 19 वीं सदी का इतिहास अहम स्थान रखता है. हर्षिल को फेड्रिक विल्सन ने विश्व पटल पर स्थान दिलाया था. उन्हें हर्षिल में सेब का जन्मदाता भी कहा जाता है. इसके बाद मुखबा गांव के कालू शिकारी का इतिहास भी अंग्रेजों से जुड़ा रहा है.
फेड्रिक विल्सन को स्थानीय भाषा में लोग 'हूल सिंह' के नाम से जानते थे. विल्सन और कालू शिकारी के विरासत को संजोए रखा है, मुखबा-हर्षिल निवासी 70 वर्षीय बालम दास ने. जिनके पास आज भी विल्सन की स्थानीय पत्नी रायमाता की तस्वीर और सिक्का समेत कालू शिकारी को अंग्रेजों की ओर से शिकार के लिए आमंत्रण की ब्रिटिशकालीन पत्र मौजूद हैं.
ये भी पढ़ेंः पहाड़ों में दम तोड़ता कुटीर उद्योग, भेड़ पालन से मुंह मोड़ रहा युवा पीढ़ी
हर्षिल घाटी की खूबसूरती का कायल हुआ था विल्सन
बालम दास बताते हैं कि साल 1850 में फेड्रिक विल्सन कलकत्ता से अंग्रेजी फौज की नौकरी छोड़ मसूरी के रास्ते हर्षिल पहुंचा था. यहां की खूबसूरती से वो इतना प्रभावित हुआ कि यहीं बस गया और टिहरी रियासत के राजा को धन अर्जित करने की तरकीब के नाम देवदार के पेड़ों के व्यापार अनुमति ली. साथ ही हर्षिल ने साल 1867 में विल्सन हाउस नाम से बंगला बनाया, जो कि साल 1997 में आग में जल गया.
विल्सन ने हर्षिल के सेब और आलू को दिलाई पहचान
विल्सन ने मुखबा गांव से रायमाता नाम की लड़की से विवाह किया. जिससे उनके दो बेटे भी हुए. विल्सन ने हर्षिल में सेब और आलू की खेती शुरू की तो साथ ही विदेशी मछलियों को भी हर्षिल लाया. बालम दास कहते हैं कि विल्सन क्षेत्र के आराध्य देव सोमेश्वर देवता में श्रद्धा रखता था. इसलिए उसने एक दिन देवता को निवेदन से अपने बंगले पर बुलाया. जहां वह पहाड़ की देवशक्ति देख आश्चर्यचकित रह गया. तब उसने सोमेश्वर देवता को उपहार स्वरूप रत्न दिए, जिसमें से आज भी एक घंटी मुखबा में सोमेश्वर देवता के मंदिर में टंगी हुई है.
ये भी पढ़ेंः उत्तराखंड के सेब को मिलने लगी अपनी पहचान, उद्यान विभाग मुहैया करा रहा कार्टन
बालम दास बताते हैं कि जब हर्षिल के हूल सिंह के पास धन की कमी हुई तो विल्सन ने अपने नाम के एक रुपये का सिक्का चलाया. जिस पर फेड्रिक विल्शन Hurshil लिखा हुआ है. दास ने कहा कि विल्सन के बाद मुखबा गांव के एक कालू शिकारी नाम से विख्यात शिकारी था, जो कि अंग्रेजों के बीच भी अपने निशाने और शिकार करने की कला के प्रसिद्ध थे.
अंग्रेज उस समय जब हर्षिल या उत्तरकाशी की विभिन्न घाटियों में शिकार के लिए आते तो अंग्रेज उन्हें पत्र देकर अपने साथ शिकार के लिए आमंत्रण देते थे. इसका साक्ष्य आज भी बालम दास के पास मौजूद है. साल 1912 का लखनऊ से आया हुआ कालू शिकारी के नाम का अंग्रेजी में पत्र है, जो कि लखनऊ कमिश्नरी के लेफ्टिनेंट सोवरनाइल की और से उन्हें भटवाड़ी पहुंचने के लिए आमंत्रण दिया गया है.