अजमेर. चौहान वंश की नगरी अजमेर का अपना समृद्ध इतिहास (Historical City Ajmer) है. ठीक उसी तरह जायका भी देश दुनिया में अपना दखल रखता है. चटपटी कढ़ी कचौरी (Ajmer Kadhi Kachori) और सोहन हलवा (Sohan Halwa Of Ajmer) इसकी खास पहचान है. सुबह अगर कढ़ी कचौरी के साथ तो भोजन बाद सोहन हलवे की मिठास जायके को बढ़ा जाती है. आस्था के साथ जायका अजमेर (Ajmer Ke Zaike Ka Safar) को एक खास फेहरिस्त में खड़ा करता है.
सुबह आबाद रहती हैं दुकानें
पुष्कर में जगत पिता ब्रह्मा मंदिर और अजमेर में सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन हसन चिश्ती की दरगाह विश्व प्रसिद्ध है. हर दिन हजारों की संख्या में लोगों का देश और दुनिया से अजमेर आना जाना रहता है. यहां आने वाले लोग आस्था पूरी करने के साथ अजमेर की संस्कृति से भी रूबरू होते है. किसी भी देश, राज्य, जिले की संस्कृति में भोजन का अहम स्थान होता है. अजमेर की कढ़ी कचौरी और सोहन हलवा भी संस्कृति का हिस्सा बन चुका है. यहां मेहमानों को नाश्ते में कढ़ी कचौरी परोसी जाती है. वहीं जब मेहमान लौटते है तो उन्हें मिठास के तौर पर सोहन हलवे की मिठास बांधी जाती है. आप को यह जानकर हैरानी होगी कि अजमेर जिले में हर दिन एक लाख से ज्यादा कढ़ी कचौरी लोग चट कर जाते है. सुबह 7 बजे से रात 8 बजे तक कढ़ी कचौड़ी की दुकानें आबाद रहती है.
ये पीढ़ियों का सफर है
अजमेर में नया बाजार में गोल प्याऊ की प्रसिद्ध कढ़ी कचौरी की दुकान (Ajmer Kadhi Kachori) है. इसका संचालन शंकर शर्मा करते हैं. बाबा दादा के जमाए सफर को अब शर्मा परिवार की चौथी पीढ़ी आगे बढ़ाएगी. इनके बेटे भी इस कारोबार में उनके साथ जुड़ चुके है. शंकर बताते है कि उनके दादा घासी लाल शर्मा ने दाल की पकौड़ी के साथ कढ़ी कचौरी की शुरुआत की थी. आज हालात यह कि तब से लेकर उनके परिवार के 100 से अधिक सदस्य अलग अलग जगहों पर इस विरासत को बढ़ा रहे हैं. उन्होंने बताया कि हर दिन उनकी दुकान पर 2 हजार से अधिक कचौरी की खपत होती है.
कारवां बनता गया
कढ़ी कचौरी का नाश्ता महज शौक ही नहीं बल्कि परंपरा बन चुकी है. अब तो शादी समारोह में भी कढ़ी कचौरी का नाश्ता दिया जाता है. इसकी लोकप्रियता इतनी है कि राजधानी जयपुर सहित अन्य जिलों में भी उनके रिश्तेदारों ने दुकानें खोल ली है. अजमेर की बात करें तो हर गली मोहल्ले में दो से तीन दुकानें कढ़ी कचौरी की होती है. खुशी से बताते हैं कि अजमेर में बड़ी संख्या में लोग विदेशों में कारोबार करते है. विदेश जाते वक्त वह अपने साथ कढ़ी कचौरी साथ ले जाते है. आज भी रोज जयपुर से दुबई जाने वाली फ्लाइट में 5 पैकेट कढ़ी कचौरी के जाते है. उन्होंने बताया कि संतुलित मसाले और मूंग की दाल की कचौरी एवं दही, छाछ बगैर कढ़ी बनाई जाती है. कढ़ी को चटपटा चटनियां बनाती हैं.
सोहन हलवा सोहना है..
कढ़ी कचौरी के तीखे चटपटे स्वाद के बाद कुछ मीठा भी हो जाए. जिक्र सोहन हलवे का. कई कहानियां मशहूर हैं. कुछ इसे बादशाह अकबर से जोड़ते हैं. कहते हैं अकबर के जमाने से ही यह चलन में आया. दरगाह क्षेत्र में लंगरखाना गली के कॉर्नर पर स्थित सोहन हलवे की पुरानी दुकान के मालिक अंकुर बताते है कि उन्होंने अपने दादा से सोहन हलवे के बारे में सुना था. बताते थे कि बादशाह अकबर ख्वाजा गरीब नवाज की दरगाह में आए (Akbar In Ajmer) तो लाव लश्कर के साथ उसके बावर्ची भी अजमेर आए थे. खाने के बाद मीठा खाने का चलन आम है. बावर्चियों ने बादशाह अकबर के लिए हलवा बनाया था लेकिन वह हलवा न बनकर आटे घी और मेवों की बर्फी बन गई. यह मिठाई अकबर को काफी पसंद आई. तभी से धीरे धीरे इस मिठाई में परिवर्तन होता रहा.
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प्रक्रिया है लाजवाब
सोहन हलवा बनाने की प्रक्रिया बहुत ही विशेष है. जाड़े के दिनों में गेहूं को अंकुरित किया जाता है. इसके बाद इन्हें सूखकर आटा बनाया जाता है. फिर उस आटे में घी मिलाकर घोटा जाता है. शक्कर,केसर और मेवे मिलाए जाते है. तब जाकर सोहन हलवा तैयार होता है. यूं तो बाजार में 150 से लेकर 650 रुपए प्रतिकिलो सोहन हलवा मिलता है. लोग इसमें वनस्पति और देशी घी का उपयोग अधिक मात्रा में होता है. एक अनुमान के मुताबिक अजमेर में 1500 किलो सोहन हलवा प्रतिदिन बिक जाता है.
सोहन हलवे की रेसिपी कहा से आई इसको लेकर अलग अलग तर्क है. लेकिन इस मिठाई के बारे में यह स्पष्ठ है कि जब आवागमन के संसाधन नही थे और लोगों को महीनों सफर करना होता था तब लोग अपने साथ सोहन हलवा ले जाते थे. इसका कारण यह था कि लंबे वक्त तक सोहन हलवा खराब नही होता है. यही वजह है कि आज भी अजमेर आने वाले लोग कढ़ी कचौड़ी का जायका लेने के साथ सोहन हलवे की मिठास अपने साथ ले जाते हैं.