नाहन: हिमाचल में लोकसभा चुनाव के लिए वोटिंग का काउंटडाउन शुरू हो गया है. रविवार को प्रदेश में सातवें चरण में चुनाव होगा. ऐसे में निर्वाचन आयोग ने निष्पक्ष और शांतिपूर्ण चुनाव करवाने के लिए सारी तैयारियां पूरी कर ली हैं.
देवभूमि में सदियों से कई परंपराएं चली आ रही हैं. आज भी लोगों में इन परंपाराओं को लेकर विश्वास है. इन्हीं में से एक परंपरा है 'लूण का लोटा'. प्रदेश के अति दुर्गम क्षेत्रों में इसे सच्चाई की कसम के तौर पर लिया जाता है. चुनाव के समय इस प्रथा का दुरुपयोग भी खूब होता रहा है. पार्टी कार्यकर्ता लूण के लोटे से कसम खिलाकर अपने वोट पक्के करते हैं.
सिरमौर के गिरीपार क्षेत्र विशेषकर शिलाई विधानसभा क्षेत्र में लूण-लोटे की ये प्रथा काफी सालों से चली आ रही है.
इस प्रथा से पार्टी कार्यकर्ता और प्रत्याशी अपने समर्थन के लिए मतदाताओं से लोटे में नमक डालकर वोट पक्का करने की कसमें दिलाते हैं. यदि वोटर ने लोटे में पानी भरकर कसम खाली तो समझो वोट पक्का हो गया. इसके बाद वोटर को उसी प्रत्याशी को वोट करना होता है, जिसके लिए वोट देने की कसम ली हो. लोगों की मान्यता है कि लूण लोटे से बढ़कर कोई कसम नहीं होती. हालांकि ये कसम गुपचुप तरीके से दिलवाई जाती है.
बुजुर्गों की मानें तो पहले ये प्रथा आपसी मतभेदों, जमीनी विवादों और अन्य झगड़ों को सुलझाने के लिए चलाई गई थी. इसमें भी उन लोगों को ये कसम दिलवाई जाती थी, जिन पर बिल्कुल भी भरोसा नहीं होता था. मान्यता है कि जो लोग इस कसम को खाकर लिया गया वचन नहीं निभाते हैं तो उनका भारी नुकसान होता है साथ ही उनकी आने वाली पीढ़ी को इसका दुष्परिणाम भोगना पड़ता है.
समय के साथ-साथ इस प्रथा का दुरुपयोग होने लगा. लोगों की प्रथा में आस्था को देखते हुए पार्टी कार्यकर्ताओं और प्रत्याशियों ने इसे राजनीतिक रंग देना शुरू कर दिया या यूं कहें कि इस प्रथा का दुरुपयोग होना शुरू हो गया. लूण लोटा प्रथा का दुरुपयोग पंचायत चुनावों में ज्यादा होता रहा है, लेकिन थोड़े समय से विधानसभा चुनाव में भी इसका दुरुपयोग हो रहा है.
सिरमौर के साथ कुल्लू, शिमला, मंडी के दुर्गम इलाकों में देवता का डर दिखाकर आज भी ऐसी प्रथाएं प्रचलित हैं. छोटा सा पहाड़ी राज्य हिमाचल आज देशभर में साक्षरता दर को लेकर अग्रिम बना हुआ है. ऐसे में प्रदेश में इस तरह की प्रथाएं चौंकाने वाली हैं. 21वीं सदी में प्रदेश का नौजवान पढ़ा-लिखा है. ऐसे में अब ऐसी प्रथाओं को नौजवान नहीं मान रहे, लेकिन बुजुर्गों का इन प्रथाओं पर अब भी पूरा विश्वास है.