कुल्लू: हिमाचल प्रदेश के कुल्लू में अंतरराष्ट्रीय दशहरा उत्सव के लिए ढालपुर का मैदान सजना शुरू हो गया है. देवी-देवताओं के महाकुंभ नाम से जाने जाना वाला यह दशहरा उत्सव अपनी अनूठी संस्कृति के लिए भी देश-दुनिया में प्रसिद्ध है. ऐसे में अंतरराष्ट्रीय दशहरा उत्सव में कुछ ऐसे देवी देवता भी हैं, जिनके बिना दशहरा उत्सव की कल्पना भी नहीं की जा सकती है. इनमें एक प्रमुख देवी है हिडिंबा देवी. दरअसल, देवी हडिंबा का दशहरा उत्सव में होना काफी आवश्यक माना जाता है. बताया जाता है कि माता हिडिंबा के बिना दशहरा उत्सव का आयोजन सफल नहीं हो सकता.
राज परिवार की कुलदेवी हैं देवी हिडिंबा: जानकारी के अनुसार, देवी हिडिंबा को राज परिवार की दादी भी कहा गया है और देव संस्कृति में माता हिडिंब प्रमुख स्थान भी है. देवी हिडिंबा को राजा विहंग मणिपाल राज परिवार की दादी का दर्जा हासिल है तो वहीं, देवी हिडिंबा ही राज परिवार की कुलदेवी भी है. कुल्लू दशहरा का आगमन देवी हिडिंबा के आगमन से होता है. दशहरा उत्सव के पहले दिन देवी अपने हरियानो के साथ राजमहल पहुंचती है और माता की पूजा के बाद भगवान रघुनाथ को भी ढालपुर में लाया जाता है. माता दशहरा उत्सव के 7 दिनों तक ढालपुर के अपने अस्थाई शिविर में रहती है और हजारों लोग देवी हिडिंबा के दर्शन के लिए यहां पहुंचते हैं.
छठे दिन शुरू होता है मोहल्ला उत्सव: बताया जाता है कि कुल्लू के पर्यटन नगरी मनाली से माता हिडिंबा नवरात्रि के नौवे दिन ढालपुर के लिए रवाना होती हैं और शाम के समय रामशिला में विश्राम करती हैं. माता के रामशिला में हनुमान मंदिर पहुंचने पर भगवान रघुनाथ की छड़ी, उन्हें सम्मान पूर्वक लाने के लिए जाती है. उसके बाद माता रघुनाथपुर में प्रवेश करती हैं. राज परिवार के लोग इस दौरान सभी परंपराओं का निर्वहन करते हैं. देवी दर्शन के साथ ही दशहरा उत्सव शुरू हो जाता है. मोहल्ले (दशहरे के छठे दिन) के दिन भी माता हिडिंबा के रथ को लाने के लिए भगवान रघुनाथ की छड़ी आती है और उसके बाद मोहल्ला उत्सव शुरू किया जाता है.
हिडिंबा का रथ लंका दहन के दिन चलता है सबसे आगे: दशहरा उत्सव में माता हिडिंबा का रथ लंका दहन के दिन भी सबसे आगे चलता है. माता हिडिंबा आशीर्वाद से देव महाकुंभ पूरी तरह से संपन्न होता है. लंका दहन के दिन माता को अष्टांग बलि (8 तरह के पशुओं की बलि) दी जाती है. लंका दहन के दिन माता हिडिंबा का गुर और पुजारी घंटी धडच (धूप जलाने का पात्र) साथ लेकर जाते हैं. जैसे ही बलि की प्रथा पूरी होती है तो माता का रथ वापस अपने देवालय की ओर लौट जाता है. इसके साथ ही दशहरा उत्सव का भी समापन हो जाता है.
राजा विहंग मणिपाल के सपने में आई थी माता हिडिंबा: इतिहासकार डॉक्टर सूरत ठाकुर का कहना है कि माता हिडिंबा ने राज परिवार के पहले राजा विहंग मणिपाल को एक बुढ़िया के रूप में दर्शन दिए थे. राजा विहंग मणिपाल ने बुढ़िया को अपनी पीठ पर उठाकर उनके स्थान तक पहुंचाया था. वहीं, माता हिडिंबा भी विहंग मणिपाल को अपने कंधे पर उठाया, उस दौरान मां हिडिंबा ने कहा कि जहां-जहां तक तेरी नजर जाती है. वहां तक की संपत्ति तेरी होगी और उसके बाद माता हिडिंबा ने राजा विहंग मणिपाल को पूरे इलाके का राजा भी घोषित किया. तभी से राज परिवार ने माता को दादी का दर्जा दिया और दशहरा उत्सव में माता हिडिंबा उपस्थिति भी अनिवार्य की गई.
16वीं शताब्दी में हुआ था कुल्लू दशहरा उत्सव का आगाज: इतिहासकार डॉक्टर सूरत ठाकुर का कहना है कि 16वीं शताब्दी में जब दशहरा उत्सव की परंपराओं का आगाज किया गया तो, उस समय से लेकर आज तक माता की पूजा भी विभिन्न प्रक्रिया से पूरी की जाती है. माता हिडिंबा का कल्लू पहुंचने पर भव्य स्वागत किया जाता है. रघुनाथपुर से राजा का एक सेवक चांदी की छड़ी लेकर जाता है और पारंपरिक तरीके से माता का स्वागत कर रघुनाथ के दरबार और फिर राजमहल तक पहुंचाता है. दशहरा उत्सव के सभी मेहमान देवताओं में माता हिडिंबा को पहला दर्जा हासिल है.
महाभारत काल से जुड़ा है माता हिडिंबा का इतिहास: महाभारत की कथाओं के अनुसार, जब पांडव अज्ञातवास के दौरान हिमालय पहुंचे तो यहां पर हिडिंब राक्षस का राज था. राक्षस ने अपनी बहन हिडिंबा जंगल में भोजन की तलाश के लिए भेजा. इस दौरान हिडिंबा ने वहां पर पांचों पांडव और उनकी माता कुंती को देखा. इस दौरान हिडिंबा ने भीम को देखा तो उसे भीम से प्रेम हो गया. जिस कारण हिडिंबा उन सभी को नहीं मारा. जब यह बात राक्षस हिडिंब को पता चली तो उसने क्रोधित होकर पांडवों पर हमला कर दिया. हिडिंब और भीम में काफी देर तक युद्ध हुआ और युद्ध में भीम ने हिडिंब को मार डाला. हिडिंबा भीम को चाहती थी, लेकिन भीम ने शादी के लिए मना कर दिया. इस पर माता कुंती ने भीम को समझाया और भीम ने हिडिंबा के साथ विवाह कर लिया. दोनों की शादी के बाद उन्हें एक पुत्र की प्राप्ति हुई, जिसका नाम घटोत्कच रखा गया. पर्यटन नगरी मनाली में माता हिडिंबा के मंदिर के साथ ही घटोत्कच का भी मंदिर बना हुआ है. माता हिडिंबा ने देवी दुर्गा की तपस्या की और उसके बाद वह देवी रूप में पूजी गई.
माता हिडिंबा का पूरे इलाके में होती पूजा: बता दें कि पर्यटन नगरी मनाली के ढूंगरी में माता हिडिंबा का भव्य मंदिर बना हुआ है. जहां पर हर साल हजारों सैलानी माता हिडिंबा के दर्शनों के लिए पहुंचते हैं. मंदिर के भीतर एक प्राकृतिक चट्टान है, जिसे देवी का स्थान कहा गया है. चट्टान को स्थानीय बोली में ढूंग कहते हैं, इसलिए देवी को ढूंगरी देवी भी कहा जाता है. देवी को पूरे इलाके में पूजा जाता है. माता हिडिंबा का मंदिर विशाल देवदार पेड़ो के मध्य चार छत वाला पेगोड़ा शैली का बना हुआ है. मंदिर का निर्माण कल्लू के शासक बहादुर सिंह ने 1553 ईसवीं में करवाया था. इस मंदिर की दीवारें पहाड़ी शैली में बनी हुई है और प्रवेश द्वार पर लकड़ी की नकाशी बनी हुई है. भगवान रघुनाथ के कारदार दानवेंद्र सिंह का कहना है की माता हिडिंबा का राजमहल में एक प्रमुख स्थान है. दशहरा उत्सव भी उनकी उपस्थिति के बिना संपन्न नहीं हो सकता है. ऐसे में इस साल भी माता हिडिंबा दशहरा उत्सव में आएंगी और 7 दिनों तक ढालपुर में अपने आस्थाई शिविर में विराजमान रहेगी.