पालमपुर: हिमाचल प्रदेश में लगभग 23 हजार हैक्टेयर भूमि पर जैविक खेती की जा रही है. जीरो बजट प्राकृतिक खेती के जनक सुभाष पालेकर और प्रदेश के पूर्व राज्यपाल आचार्य देवव्रत की पहल से प्रदेश में हजारों किसान 'सुभाष पालेकर प्राकृतिक खेती' की ओर बढ़े रहे हैं.
जीरो बजट प्राकृतिक खेती के परिणामों के चलते हिमाचल प्रदेश कृषि विश्वविद्यालय में पिछले दो वर्ष से किए जा रहे शोध के परिणाम प्रोत्साहजनक माने जा रहे हैं. जैविक कृषि में प्रयोग होने वाली विधियां काफी मुश्किल और मंहगी हैं. इसके साथ ही जैविक कृषि में पौधों की मांग के अनुरूप पोषक तत्वों की उपलब्धता कम पाई जाती है. इस कारण जैविक खेती की वैकल्पिक व्यवस्था के रूप में प्राकृतिक खेती को ही एकमात्र विकल्प माना जा रहा है.
वर्तमान में उभरती टैकनोलॉजी को जीरो बजट प्राकृतिक खेती का नाम दिया गया है. कृषि विश्वविद्यालय में स्थापित नए केंद्र पर वैज्ञानिक ढंग से प्राकृतिक खेती का परीक्षण किया जा रहा है. इसके लिए राज्य सरकार की ओर पद्मश्री 'सुभाष पालेकर प्राकृतिक खेती' का मूल्यांकन और प्रसार परियोजना स्वीकृत की गई है. इसके साथ ही कृषि विश्विवद्यालय की ओर से विकसित जैविक खेती का प्राकृतिक खेती से तुलनात्मक अध्ययन किया जा रहा है.
देशभर में कृषि विश्वविद्यालयों की संख्या
वर्तमान में देश में 75 कृषि विश्वविद्यालय,110 भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के शोध संस्थान, केंद्रीय विश्वविद्यालय और डीम्ड विश्वविद्यालय स्थापित किए गये हैं, लेकिन प्राकृतिक खेती पर पूरे देश में प्रथम केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय स्थापित किया गया है. वहीं प्रथम केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय में पहली बार प्राकृतिक खेती पर शोध कार्य हो रहा है.
क्या कहते है के कृषि विश्वविद्यालय कुलपति
कृषि विश्वविद्यालय कुलपति प्रो. अशोक कुमार सरयाल ने कहा कि विश्वविद्यालय में शून्य लागत प्राकृतिक खेती के प्रारंभिक शोध में आश्चर्यजनक परिणाम देखने को मिले हैं. उन्होंने बताया कि प्रारंभिक शोध में जैविक खेती से मूली की 31 प्रतिशत अधिक उपज प्राप्त हुई. वहीं, बंदगोभी, गोभी, लहसुन, मसूर, गेहूं, चना, गोभी, सरसों और तिलहन के परिणाम संतोषजनक रहे.
कुलपति ने बताया कि कृषि विश्वविद्यालय में जीरो बजट प्राकृतिक खेती के पहले चरण में 3 करोड़ की परियोजना के तहत दस हैक्टेयर भूमि पर काम शुरु किया गया है. इसके बाद विश्वविद्यालय को प्राकृतिक खेती के उतम केंद्र की स्थापना के लिए भारत सरकार से 22 करोड़ 50 लाख रुपये की योजना सविकृत हुई है. इस केंद्र में रवी मौसम 2018-19 से सिंचित एवं असिंचित दशा में विभिन्न फसलों और बिंदुओं पर वैज्ञानिक ढंग से अध्ययन का काम शुरू किया गया है.
प्राकृतिक खेती पर शोध की आवश्यकता क्यों है
भारतीय कृषि में पिछले कुछ दशकों में काफी बदलाव देखा गया है. पूरे देश में गेहूं और धान की प्रजातियों को उगाया जा रहा है. यह एक उन्नतिशील टैकनोलजी की देन है. इस कारण 1980 के दशक में देश काफी कम समय में खाद्यान्न उत्पादन में आत्मनिर्भर हो गया था. पिछले 50 वर्षों में देश ने खाद्यान्न फसलों की उत्पादकता में असाधारण इजाफा किया है, लेकिन आज के समय में देश में खेती योग्य भूमि का क्षेत्रफल कम हो रहा है और भूमि का मूल्य बढ़ रहा है.
देश में 1950-51 से 2018-19 के बीच खाद्यान्न उत्पादन की क्षमता 50.82 मिलियन टन से बढ़कर 283.37 मिलियन टन हो गई है. उसी समय में हिमाचल प्रदेश में खाद्यान्न उत्पादन 1.99 लाख टन से 15.93 लाख टन हुआ जोकि आठ गुना है.
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