नई दिल्ली: दिल्ली हाईकोर्ट में एक याचिका दायर की गई थी, जिसमें तत्काल प्रभाव से इंटरनेट पर मौजूद अश्लील और गैर फिल्मी गानों की जांच करने की अपील की गई, साथ ही इनपर प्रतिबंध लगाने के लिए भी कहा गया था. अब इस याचिका को दिल्ली अदालत ने खारिज कर दिया है. जस्टिस सतीश चंद्र शर्मा और जस्टिस सुब्रमण्यम प्रसाद की खंडपीठ ने कहा है कि विभिन्न मीडिया प्लेटफॉर्म के माध्यम से आम जनता के लिए उपलब्ध सूचना और सामग्री को विनियमित करने के लिए केंद्र सरकार द्वारा स्पष्ट नियमन या शासन निर्धारित किया गया है.
अदालत ने कहा कि जहां तक टेलीविजन का संबंध है, सिनेमैटोग्राफ अधिनियम, 1952 और केबल टेलीविजन नेटवर्क (विनियमन) अधिनियम, 1995, इन प्लेटफार्मों पर प्रसारित होने वाली सामग्री के नियमन के मुद्दे को संबोधित करते हैं. कोर्ट ने कहा कि एक नियामक प्राधिकरण की नियुक्ति के निर्देश के परिणामस्वरूप अदालत द्वारा कानून बनाया जाएगा, जिसकी अनुमति नहीं है. अदालतें किसी कानून को अनिवार्य नहीं कर सकती हैं और किसी कानून में प्रावधान नहीं जोड़ सकती हैं, क्योंकि यह इस देश की संवैधानिक योजना में स्वीकार्य नहीं है. न्यायपालिका की भूमिका मुख्य रूप से केवल एक कानून की वैधता का टेस्ट करने के लिए है, न कि किसी कानून में संशोधन करने के लिए. नियामकों की स्थापना विशुद्ध रूप से विधायिका के अधिकार क्षेत्र में आती है.
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अदालत ने स्पष्ट किया कि भारत सरकार के सूचना प्रौद्योगिकी संहिता के नियम 3 और 4 यूट्यूब, व्हाट्सएप, ट्विटर, फेसबुक इत्यादि जैसे विभिन्न मध्यस्थों पर लागू होते हैं. ये दिशानिर्देश उस सामग्री की प्रकृति को विनियमित करते हैं जिसे इन प्लेटफार्मों द्वारा होस्ट नहीं किया जाना चाहिए. ये दिशानिर्देश आईटी अधिनियम के तहत अपराधों के अलावा, उल्लंघनकर्ताओं को भारतीय दंड संहिता के तहत भी बुक किया जा सकता है. इस प्रकार, याचिकाकर्ता की शिकायत है कि टेलीविजन, यूट्यूब आदि जैसे विभिन्न मीडिया प्लेटफॉर्मों के माध्यम से आम जनता के लिए उपलब्ध कराए जाने वाले गैर-फिल्मी गानों के लिए कोई नियामक प्राधिकरण / सेंसर बोर्ड नहीं है.
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