नई दिल्ली: दिल्ली एनसीआर में नाबालिग खुलकर आपराधिक वारदात को अंजाम दे रहे हैं. अपराध की यह घटनाएं पुलिस के साथ-साथ समाज के लिए भी बड़ी चिंता का कारण बन गई है. हत्या, लूट, दुष्कर्म जैसे गंभीर वारदातों में अब इनकी संलिप्तता हो चुकी है. बीते दिनों बदरपुर में जहां तीन नाबालिगों ने मिलकर गैंगरेप की वारदात को अंजाम दिया. वहीं, उतरी दिल्ली के तिमारपुर में पांच नाबालिगों ने आपसी रंजिश में नाबालिग की चाकू गोद कर हत्या कर दी.
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों के मुताबिक, दिल्ली में हर साल औसतन 2500 नाबालिग अपराध की दुनिया में जा रहे हैं. किशोर अपराधियों के खिलाफ कोई कड़ा कानून नहीं है. जिसके कारण बड़े गैंगस्टर इसका फायदा भी उठाते हैं. ऐसे में कानून की सख़्ती के साथ-साथ बच्चों की परवरिश पर भी ध्यान देने की जरूरत है. यह सब कैसे संभव हो सकता है, आज इसी विषय पर दिल्ली पुलिस के पूर्व डीसीपी एलएन राव, सुप्रीम कोर्ट की सीनियर लॉयर सुनीता भारद्वाज और मनोचिकित्सक डॉ बी पी त्यागी ने चर्चा की.
बच्चों को बताना होगा मोरल वैल्यूः दिल्ली पुलिस के पूर्व डीसीपी एलएन राव ने बताया कि बच्चों को अपराध से दूर दूर रखने के लिए सबसे पहले उन्हें मोरल वैल्यू समझने की आवश्यकता है. उनको बताना होगा कि अच्छा बुरा क्या है. समाज के लोग और कई गैर सरकारी संस्था भी इस दिशा में अच्छे नियत से काम करें. तब कुछ बदलाव हो सकता है. किशोरावस्था में बच्चों को अच्छे- बुरे की समझ नहीं होती. ऐसे में अगर एक बार बच्चों को अपराध का चस्का लग गया तो उसको सही रास्ते पर लाने का काम बेहद मुश्किल हो जाता है. इसलिए परिजनों को बच्चों की हर गतिविधि पर नजर रखनी चाहिए. आजकल ज्यादा एकल परिवार में रहते हैं. माता-पिता ड्यूटी करते हैं और बच्चा घर पर अकेला रहता है. ऐसा बच्चा सोशल मीडिया, टीवी, इंटरनेट आदि पर ऐसी चीज देखता है जो उसे अपराध की तरफ खींचता है.
कानून कड़ा करने की जरूरतः एलएन राव ने कहा कि इतना ही नहीं गैंगस्टर के ईशारे पर नाबालिग कांट्रेक्ट किलिंग करने से भी पीछे नहीं हैं. कुछ गैंग लालच देकर इनका इस्तेमाल अपने फायदे के लिए करते हैं. अब यह देखना होगा कि नाबालिग द्वारा होने वाला अपराध आखिर बढ़ क्यों रहा है? इसकी वजह नाबालिग के अपराध को लेकर नरम कानून है. बड़े से बड़े अपराध करने पर भी नाबालिगों को केवल बाल सुधार गृह में रखा जाता है. इसका फायदा गैंगस्टर उठाते हैं. सरकार को नाबालिग के लिए की सजा के लिए 16 साल तक की उम्र कर देनी चाहिए. अभी 18 साल उम्र होने से बदमाश इसका फायदा उठाते हैं. उन्होंने कहा कि अधिकांश मामले 16 से 18 साल के बीच वाले नाबालिगों द्वारा ही किया जाता हैं. इसलिए कानून में संशोधन बहुत ही जरूरी है.
चर्चा में शामिल होते हुए सुप्रीम कोर्ट की वरिष्ठ अधिवक्ता सुनीता भारद्वाज ने कहा कि कानून के तहत पुलिस ऐसे मामलों में कार्रवाई करती है. लेकिन नाबालिगों के लिए बनाए गए जुवेनाइल एक्ट का नरम होना भी एक बड़ा कारण है. जो नाबालिग एक जुर्म करने के बाद सजा काट लेता है वह बाहर निकलकर फिर दोबारा अपराध करता है. सरकार ने पूर्व में यह कानून बनाया था कि अगर कोई 16 साल से ज्यादा का नाबालिग गंभीर अपराध करेगा तो अदालत बालिग मानते हुए उस पर केस चल सकती है. लेकिन इसके बावजूद ऐसे अपराध हो रहे हैं. निर्भया केस में एक आरोपी जिसने घिनौना काम किया था, कम उम्र होते हुए भी उसे नाबालिग नहीं बालिग मानकर ही सजा दी गई थी.
समाज को लेना होगा सामूहिक फैसलाः सुनीता भारद्वाज कहतीं हैं आजकल बच्चे इस उम्र में काफी समझदार होते हैं. बदमाश भी 16 साल से नीचे उम्र के बच्चों का इस्तेमाल नहीं करते हैं क्योंकि वह ठीक से अपराध नहीं कर पाएगा. ऐसे में अपराध की दुनिया में नाबालिग ना जाए इसके लिए समाज को सामूहिक रूप से मिलकर कुछ कड़े फैसले लेने होंगे. कानून में संशोधन तो होने ही चाहिए, अभी संसद में जिस तरह तीन कानून में बदलाव किया गया, सरकार को जुवेनाइल एक्ट में भी बदलाव करने पर विचार करना चाहिए. इसके अलावा राज्य सरकार हो या केंद्र सरकार सबको किशोरों कैसे समाज के लिए, देश के लिए उपयोगी हो सकते हैं इस सुविधा पर ध्यान देना चाहिए. साथ ही आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग के लोगों को समाज की मुख्य धारा में कैसे लाए, इस पर गंभीरता से विचार करना चाहिए.
उन्होंने नाबालिगों से जुड़े कई मामलों के कोर्ट में आने और उसे पर हुए फैसलों का जिक्र किया. सुनीता भारद्वाज ने कहा कि जिस तरह पुलिस में आर्थिक मामलों की जांच के लिए अलग विंग, महिलाओं के अपराध के लिए अलग पुलिस स्टेशन बने हुए हैं. इसी तरह नाबालिगों द्वारा अपराध के लिए भी अलग सेल आदि बनाई जानी चाहिए. आजकल बच्चे संयुक्त परिवार की जगह एकल परिवार में रहते हैं, माता-पिता अपने काम में व्यस्त रहते हैं. वह बच्चों पर ध्यान नहीं दे पाते हैं, जिससे बच्चा कुंठित महसूस करता है. ऐसे में माता-पिता को भी अपनी प्रायोरिटी तय करनी चाहिए कि उनके लिए महत्वपूर्ण कौन है?
चर्चा में शामिल वरिष्ठ फिजिशियन व मनोचिकित्सक डॉ बी पी त्यागी ने कहा कि जितने भी हमारे साइकोलॉजिकल इंस्टिट्यूट है उनकी संख्या में बढ़ोतरी होनी चाहिए. उन्होंने उदाहरण के तौर पर कहा कि मनोरोगियों के लिए दिल्ली में एक इंस्टिट्यूट है और दूसरा आगरा में. यह कितना बड़ा गैप है. दूसरा जितने भी एजुकेशनल इंस्टीट्यूट है उनको भी यह सुझाव रहेगा कि वह साइकोलॉजिस्ट, मनोवैज्ञानिक हैं उनके साथ बच्चों को जुड़ाव करें. इंटरेक्ट कराएं. ताकि वह मॉनिटर कर पाए कि हमारा बच्चा मेंटली कितना हेल्दी है. यह दो महत्वपूर्ण बिंदु है. जिन पर हेल्थ मिनिस्टर और मंत्रालय को ध्यान देना चाहिए.
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डॉ त्यागी ने कहा कि दुनिया के विकसित देशों में जितने भी स्कूल हैं वहां पर साइकोलॉजिस्ट की संख्या अधिक होती है. प्रत्येक क्लास के लिए साइकोलॉजिस्ट होते हैं. वह बड़ों का बच्चों का मन रीड कर पाते हैं. हमारे यहां आज भी मनोचिकित्सा के पास जाने को अच्छा नहीं माना जाता है. बहुत सारे लोग हैं जो मानसिक बीमारियों से ग्रस्त है लेकिन वह मनोचिकित्सक के पास नहीं आते. बच्चों को तो इस डर से भी नहीं लाते की समाज उन्हें पागल ना समझने लगे. इस मानसिकता से भी हमें निकलना होगा. आज बच्चों के माता-पिता को जानने समझने के लिए तकनीक है, ट्रिक है, इलाज है. अगर उन्हें लगता है कि कहीं भटकाव हो गया है तो उसे मनोचिकित्सा के मदद से ठीक किया जा सकता है.