बिलासपुर: भादो माह के शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि को अनुराधा नक्षत्र में ज्येष्ठा और कनिष्ठा देवी की स्थापना की जाती है. ये दोनों महालक्ष्मी का ही रूप हैं. ये पूजा महालक्ष्मी पूजा के नाम से जानी जाती है. महाराष्ट्रीयन परिवारों में ये पूजा बड़े धूमधाम से की जाती है. इसमें पूरा परिवार एक जगह इकट्ठा होता है. अगर परिवार का कोई सदस्य विदेश में भी हो तो वो घर आकर इस पूजा में शामिल होता है.
बिलासपुर के महाराष्ट्रीयन परिवार कर रहे सेलिब्रेट: बिलासपुर की महाराष्ट्र एंड फैमिली में हर साल ये पर्व मनाया जाता है. बिलासपुर के महाराष्ट्रीयन परिवारों में काफी धूमधाम से ये पूजा मनाई जाती है. इस पूजा से परिवार में एक अलग ही खुशियां रहती है. पूरा परिवार एक जगह बैठकर महालक्ष्मी की पूजा करता है. भद्रपद मास की षष्ठी तिथि को महाराष्ट्रीयन परिवार घरों में महालक्ष्मी को विराजित करते हैं. महालक्ष्मी को जब घर में प्रवेश कराया जाता है, उस समय उनका मुखड़ा थाली में रखकर घर में प्रवेश किया जाता है. इस समय ढोल-बाजे के साथ देवी का स्वागत किया जाता है. इसके बाद देवी के बॉडी के अलग-अलग पार्ट्स को इकट्ठा कर देवी के रूप में तैयार किया जाता है. फिर उन्हें 16 श्रृंगार कर नई साड़ी और घर की बेटी-बहू को सोने के जेवरात पहनाए जाते हैं. माना जाता है कि देवी के विसर्जन के बाद उन्हीं गहनों और साड़ियों को पहनना शुभ होता है. इससे घर में समृद्धि आती है.
पहली बार अपने घर में इस पूजा को करना चाहती थी. इसके लिए नागपुर से चारों प्रतिमाओं को लाया गया. प्रतिमा अलग-अलग भाग में होते हैं. सभी को जोड़कर तैयार किया जाता है. देवी के मुखौटे को थाली में रखकर गृह प्रवेश कराया जाता है. इसके बाद सभी पार्ट्स को जोड़कर उनकी स्थापना की जाती है. विसर्जन के बाद चारों प्रतिमाएं अगले वर्ष के लिए फिर से रख लिया जाता है. -अंजलि गोवर्धन
16 संख्या का है खास महत्व: महालक्ष्मी की पूजा में 16 संख्या का विशेष महत्व होता है. मान्यता है कि देवी सफर करके आती हैं. इसलिए पहले दोनों देवियों को सादा भोजन का नैवेद्य लगाया जाता है. गुरुवार को ही महाराष्ट्रीयन परिवार में माता को विराजमान कर दिया है. इसके बाद देवियों को 56 पकवानों का भोग लगाया जाता है. इसमें पूरनपोली, पटल भाजी, अरबी के पत्ते के भजिए, पूड़ी, 16 तरह की चटनी, 16 तरह की सब्जी, 16 तरह की नमकीन, 16 प्रकार की मिठाई, दाल, चावल, खीर सहित अन्य पकवान बनाए जाते हैं. पूरी पूजा में दोनों देवियों को धागों से 16 बार लपेटा जाता है. यहां तक कि विसर्जन के बाद धागों में 16 गांठ बांधकर महिलाएं धागे को पहनती हैं.