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क्या है बूढ़ी दिवाली, पटाखों का नहीं होता शोर...दीपावली के एक महीने बाद इसे क्यों और कैसे मनाते हैं लोग

हिमाचल के ऊपरी क्षेत्रों में दीपावली के बाद बूढ़ी दिवाली मनाई जाती है. इसका संबंध श्रीराम के अयोध्या लौटने से भी पुराना बताया जाता है.

हिमाचल में मनाई जाती है बूढ़ी दिवाली
हिमाचल में मनाई जाती है बूढ़ी दिवाली (फाइल फोटो)
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By ETV Bharat Himachal Pradesh Team

Published : 3 hours ago

कुल्लू: देशभर में दीपावली बड़े धूमधाम से मनाई जा रही है. बाजारों में दिवाली को लेकर रौनक देखने को मिल रही है. हिमाचल में भी दिवाली को लेकर लोग खरीददारी करने में जुटे हैं, लेकिन दीपावली के एक माह बाद एक और दिवाली मनाई जाती है. इसे बूढ़ी दिवाली के नाम से जाना जाता है. हिमाचल के कई क्षेत्रों में बूढ़ी दिवाली को बड़े हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है.

ये बूढ़ी दिवाली का पर्व दीपावली बीतने के एक महीने बाद मनाया जाता है. इस दिवाली पर पटाखों का शोर नहीं होता. सिरमौर जिला के कई क्षेत्रों सहित करसोग के च्वासी क्षेत्र के महोग, खन्योल च्वासी, रामपुर, कुल्लू आदि इलाकों में दिवाली के एक महीने बाद बूढ़ी दिवाली मनाने की परंपरा सदियों से चली आ रही है. इस परंपरा को लोग आज जीवित रखे हुए हैं. करसोग के ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी लोग आधी रात को ग्रामीण क्षेत्रों च्वासी क्षेत्र के महोग, खन्योल च्वासी मंदिर और कांडी, कौजौन, ममलेश्वर महादेव, देव थनाली मंदिर में लोग देवदार और चीड़ की लकड़ियों की मशालें जलाकर ढोल नगाड़ों की थाप पर नृत्य करते हुए गांव की परिक्रमा कर दशकों पुरानी लोक परंपरा को निभाते हैं.

बूढ़ी दिवाली मनाते लोग
बूढ़ी दिवाली मनाते लोग (ETV BHARAT)

कृष्ण पक्ष की अमावस्या को मनाई जाती है बूढ़ी दिवाली

इस पर्व का नाम 'बुड्ढी दयावड़ी' है, यहां दयावड़ी का अर्थ संघर्ष है. देशभर में दिवाली कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की अमावस्या को मनाई जाती है, जबकि बूढ़ी दिवाली एक महीने बाद मार्गशीर्ष महीने के कृष्ण पक्ष की अमावस्या को मनाई जाती है. लेखक दीपक शर्मा के मुताबिक, 'बूढ़ी दिवाली मनाने को लेकर कई मान्यताएं हैं. एक कहानी राक्षस वृत्रासुर और देवराज इंद्र के बीच हुई जंग से जुड़ी है. ये वही वृत्रासुर राक्षस था जिसे मारने के लिए ऋषि दधिचि ने इंद्र को अपनी अस्थियां दान कर दी थी. फिर इन्हीं अस्थियों से इंद्र का वज्र तैयार हुआ, जिससे राक्षस वृत्रासुर का वध किया गया था. इसी उपलक्ष्य में इन इलाकों में बूढ़ी दिवाली मनाई जाती है.'

देर से मिली थी भगवान राम के अयोध्या पहुंचने की जानकारी

सिरमौर का हाटी समुदाय और शिमला के रामपुर सहित कुल्लू के इलाकों में भी बूढ़ी दिवाली का पर्व मनाया जाता है. केंद्रीय हाटी समिति के उपाध्यक्ष सुरेंद्र हिंदुस्तानी के मुताबिक, 'भगवान राम के लंका विजय के बाद अयोध्या लौटने की खबर एक महीने बाद मिली थी, जिसके कारण इन इलाकों में दीप जलाकर दिवाली मनाने की परंपरा शुरू हुई. अकेले सिरमौर जिले के गिरीपार इलाके में 140 पंचायतों के 435 गांवों में बूढ़ी दिवाली बहुत धूमधाम से मनाई जाती है. हालंकि कुछ जगह ये त्योहार 3 दिन मनाते हैं तो कुछ जगह 5 और 7 दिन तक पर्व मनाया जाया है.'

बूढ़ी दिवाली मनाते लोग
बूढ़ी दिवाली मनाते लोग (ETV BHARAT)

राजा बलि से भी जुड़ी है कहानी

हिमाचल प्रदेश के कई इलाकों में कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की अमावस्या को मनाई जाने वाली दीपावली का संबंध राजा राम से भी पहले राजा बलि से जुड़ता है. लेखक दीपक शर्मा कहते हैं कि, 'पौराणिक कथाओं में राजा बलि एक प्रतापी और दानी राजा थे. भगवान विष्णु ने वामन अवतार धारण कर राजा बलि से 3 पग भूमि का दान मांगा और फिर उन्होंने अपने पहले दो कदमों से पूरा ब्रह्मांड नाप लिया. भगवान विष्णु ने दैत्य राज बलि से जब तीसरा पग रखने की जगह मांगी तो राजा बलि ने अपना सिर तीसरे कदम के लिए आगे कर दिया था. इसके बाद भगवान विष्णु ने राजा बलि को पाताललोक में वास करने का आदेश दिया. आज भी कुल्लू से लेकर शिमला तक के कई इलाकों में दिवाली पर राजा बलि का गुणगान होता है. बाद में भगवान राम के अयोध्या लौटने पर दीपावली पर दीये जलाने का चलन भी शुरू हुआ.'

कैसे मनाते है बूढ़ी दिवाली

बूढ़ी दिवाली के दौरान रात भर मशाल जलाकर वाद्य यंत्रों पर नाच-गाना और जश्न होता है. इस दौरान लोग राक्षस वृत्तासुर और इंद्र की सेना के रूप में बंट जाते हैं और एक जलती हुई मशाल को छीनने की होड़ लग जाती है. ये पौराणिक कहानियों में दर्ज वृत्तासुर और इंद्र के युद्ध को दर्शाता है. 3 से लेकर 7 दिन तक होने वाले इस त्योहार में खास मेले भी लगते हैं. इस दौरान पूरी रात रामायण, महाभारत, राजा बलि से लेकर देवराज इंद्र तक से जुड़ी कहानियों का मंचन और व्याख्यान होता है. स्थानीय बोली में इन पौराणिक घटनाओं और पात्रों से जुड़े गीत गाए जाते हैं. लोक नृत्य होते हैं और कई तरह के स्थानीय पकवान बनाए जाते हैं.

मशालें लेकर करते हैं गांव की परिक्रमा

बूढ़ी दिवाली की रात को देव थनाली, माहूनाग में नृत्य के साथ बूढ़ी दिवाली मानने का पर्व शुरू होता है. इस दौरान लोग हाथों में मशालें लेकर गांव की परिक्रमा करते हैं. बूढ़ी दिवाली के उपलक्ष्य पर करसोग के कांडी कौजौन ममलेश्वर महादेव देव, थनाली मंदिर में रात को भंडारे के बाद देवता के गुर देव खेल के बाद करीब 10 फीट गहरी बावड़ी में छलांग लगाकर कड़ाके की सर्दी में ठंडे पानी में स्नान करते हैं. इसके बाद जयकारों के साथ आधी रात को करीब 1 बजे ग्रामीणों दरेछ (मशालें) जलाकर गांव की परिक्रमा कर सुबह करीब 4 बजे वापस मंदिर में लौटते हैं और गांव में खुशहाली और शांति बनाए रखने के लिए देवता से आशीर्वाद लेते हैं.

ममलेश्वर महादेव मंदिर देव थनाली के कारदार युवराज ठाकुर के मुताबिक, 'करसोग के च्वासी क्षेत्र में सदियों से चली आ रही बूढ़ी दिवाली की परम्परा को आज भी उत्साह के साथ निभाया जा रहा है. क्षेत्र में अन्न-धन और सुख समृद्धि की कामना के लिए बूढ़ी दिवाली की आधी रात लोग मशालें जलाकर गांव की परिक्रमा कर वापस मंदिर में लौटने पर लोक नृत्य के साथ पर्व संपन्न करते हैं. ये पर्व दीवाली के एक महीने बाद मनाया जाता है.'

ये भी पढ़ें: हिमाचल के इस गांव में नहीं मनाई जाती दिवाली, 7 पीढ़ियों पर लगा है श्राप!

ये भी पढ़ें: दिवाली पर HRTC चंडीगढ़ और दिल्ली से चलाएगी स्पेशल बसें, यहां जानें रूट

कुल्लू: देशभर में दीपावली बड़े धूमधाम से मनाई जा रही है. बाजारों में दिवाली को लेकर रौनक देखने को मिल रही है. हिमाचल में भी दिवाली को लेकर लोग खरीददारी करने में जुटे हैं, लेकिन दीपावली के एक माह बाद एक और दिवाली मनाई जाती है. इसे बूढ़ी दिवाली के नाम से जाना जाता है. हिमाचल के कई क्षेत्रों में बूढ़ी दिवाली को बड़े हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है.

ये बूढ़ी दिवाली का पर्व दीपावली बीतने के एक महीने बाद मनाया जाता है. इस दिवाली पर पटाखों का शोर नहीं होता. सिरमौर जिला के कई क्षेत्रों सहित करसोग के च्वासी क्षेत्र के महोग, खन्योल च्वासी, रामपुर, कुल्लू आदि इलाकों में दिवाली के एक महीने बाद बूढ़ी दिवाली मनाने की परंपरा सदियों से चली आ रही है. इस परंपरा को लोग आज जीवित रखे हुए हैं. करसोग के ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी लोग आधी रात को ग्रामीण क्षेत्रों च्वासी क्षेत्र के महोग, खन्योल च्वासी मंदिर और कांडी, कौजौन, ममलेश्वर महादेव, देव थनाली मंदिर में लोग देवदार और चीड़ की लकड़ियों की मशालें जलाकर ढोल नगाड़ों की थाप पर नृत्य करते हुए गांव की परिक्रमा कर दशकों पुरानी लोक परंपरा को निभाते हैं.

बूढ़ी दिवाली मनाते लोग
बूढ़ी दिवाली मनाते लोग (ETV BHARAT)

कृष्ण पक्ष की अमावस्या को मनाई जाती है बूढ़ी दिवाली

इस पर्व का नाम 'बुड्ढी दयावड़ी' है, यहां दयावड़ी का अर्थ संघर्ष है. देशभर में दिवाली कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की अमावस्या को मनाई जाती है, जबकि बूढ़ी दिवाली एक महीने बाद मार्गशीर्ष महीने के कृष्ण पक्ष की अमावस्या को मनाई जाती है. लेखक दीपक शर्मा के मुताबिक, 'बूढ़ी दिवाली मनाने को लेकर कई मान्यताएं हैं. एक कहानी राक्षस वृत्रासुर और देवराज इंद्र के बीच हुई जंग से जुड़ी है. ये वही वृत्रासुर राक्षस था जिसे मारने के लिए ऋषि दधिचि ने इंद्र को अपनी अस्थियां दान कर दी थी. फिर इन्हीं अस्थियों से इंद्र का वज्र तैयार हुआ, जिससे राक्षस वृत्रासुर का वध किया गया था. इसी उपलक्ष्य में इन इलाकों में बूढ़ी दिवाली मनाई जाती है.'

देर से मिली थी भगवान राम के अयोध्या पहुंचने की जानकारी

सिरमौर का हाटी समुदाय और शिमला के रामपुर सहित कुल्लू के इलाकों में भी बूढ़ी दिवाली का पर्व मनाया जाता है. केंद्रीय हाटी समिति के उपाध्यक्ष सुरेंद्र हिंदुस्तानी के मुताबिक, 'भगवान राम के लंका विजय के बाद अयोध्या लौटने की खबर एक महीने बाद मिली थी, जिसके कारण इन इलाकों में दीप जलाकर दिवाली मनाने की परंपरा शुरू हुई. अकेले सिरमौर जिले के गिरीपार इलाके में 140 पंचायतों के 435 गांवों में बूढ़ी दिवाली बहुत धूमधाम से मनाई जाती है. हालंकि कुछ जगह ये त्योहार 3 दिन मनाते हैं तो कुछ जगह 5 और 7 दिन तक पर्व मनाया जाया है.'

बूढ़ी दिवाली मनाते लोग
बूढ़ी दिवाली मनाते लोग (ETV BHARAT)

राजा बलि से भी जुड़ी है कहानी

हिमाचल प्रदेश के कई इलाकों में कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की अमावस्या को मनाई जाने वाली दीपावली का संबंध राजा राम से भी पहले राजा बलि से जुड़ता है. लेखक दीपक शर्मा कहते हैं कि, 'पौराणिक कथाओं में राजा बलि एक प्रतापी और दानी राजा थे. भगवान विष्णु ने वामन अवतार धारण कर राजा बलि से 3 पग भूमि का दान मांगा और फिर उन्होंने अपने पहले दो कदमों से पूरा ब्रह्मांड नाप लिया. भगवान विष्णु ने दैत्य राज बलि से जब तीसरा पग रखने की जगह मांगी तो राजा बलि ने अपना सिर तीसरे कदम के लिए आगे कर दिया था. इसके बाद भगवान विष्णु ने राजा बलि को पाताललोक में वास करने का आदेश दिया. आज भी कुल्लू से लेकर शिमला तक के कई इलाकों में दिवाली पर राजा बलि का गुणगान होता है. बाद में भगवान राम के अयोध्या लौटने पर दीपावली पर दीये जलाने का चलन भी शुरू हुआ.'

कैसे मनाते है बूढ़ी दिवाली

बूढ़ी दिवाली के दौरान रात भर मशाल जलाकर वाद्य यंत्रों पर नाच-गाना और जश्न होता है. इस दौरान लोग राक्षस वृत्तासुर और इंद्र की सेना के रूप में बंट जाते हैं और एक जलती हुई मशाल को छीनने की होड़ लग जाती है. ये पौराणिक कहानियों में दर्ज वृत्तासुर और इंद्र के युद्ध को दर्शाता है. 3 से लेकर 7 दिन तक होने वाले इस त्योहार में खास मेले भी लगते हैं. इस दौरान पूरी रात रामायण, महाभारत, राजा बलि से लेकर देवराज इंद्र तक से जुड़ी कहानियों का मंचन और व्याख्यान होता है. स्थानीय बोली में इन पौराणिक घटनाओं और पात्रों से जुड़े गीत गाए जाते हैं. लोक नृत्य होते हैं और कई तरह के स्थानीय पकवान बनाए जाते हैं.

मशालें लेकर करते हैं गांव की परिक्रमा

बूढ़ी दिवाली की रात को देव थनाली, माहूनाग में नृत्य के साथ बूढ़ी दिवाली मानने का पर्व शुरू होता है. इस दौरान लोग हाथों में मशालें लेकर गांव की परिक्रमा करते हैं. बूढ़ी दिवाली के उपलक्ष्य पर करसोग के कांडी कौजौन ममलेश्वर महादेव देव, थनाली मंदिर में रात को भंडारे के बाद देवता के गुर देव खेल के बाद करीब 10 फीट गहरी बावड़ी में छलांग लगाकर कड़ाके की सर्दी में ठंडे पानी में स्नान करते हैं. इसके बाद जयकारों के साथ आधी रात को करीब 1 बजे ग्रामीणों दरेछ (मशालें) जलाकर गांव की परिक्रमा कर सुबह करीब 4 बजे वापस मंदिर में लौटते हैं और गांव में खुशहाली और शांति बनाए रखने के लिए देवता से आशीर्वाद लेते हैं.

ममलेश्वर महादेव मंदिर देव थनाली के कारदार युवराज ठाकुर के मुताबिक, 'करसोग के च्वासी क्षेत्र में सदियों से चली आ रही बूढ़ी दिवाली की परम्परा को आज भी उत्साह के साथ निभाया जा रहा है. क्षेत्र में अन्न-धन और सुख समृद्धि की कामना के लिए बूढ़ी दिवाली की आधी रात लोग मशालें जलाकर गांव की परिक्रमा कर वापस मंदिर में लौटने पर लोक नृत्य के साथ पर्व संपन्न करते हैं. ये पर्व दीवाली के एक महीने बाद मनाया जाता है.'

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