शिमला: छोटे पहाड़ी राज्य हिमाचल प्रदेश आने वाले समय में देश को प्राकृतिक खेती की राह दिखाएगा. प्रदेश में साल 2018 में सैकड़ों किसानों ने सुभाष पालेकर प्राकृतिक खेती की तकनीक से सफर शुरू किया था, जो अब 1.98 लाख किसानों का कारवां बन गया है. प्रदेश सरकार ने साल 2030 तक हिमाचल को जहर वाली खेती से मुक्त राज्य बनाने का लक्ष्य रखा है. इस तरह से आज से छह साल पहले प्राकृतिक खेती की दिशा में बढ़ाया का एक छोटा सा कदम धीरे धीरे से लाखों किसानों का एक बड़ा समूह बन गया है, जो देशभर के किसानों के लिए एक बड़ी प्रेरणा है.
35 हजार हेक्टेयर भूमि पर प्राकृतिक खेती
हिमाचल में साल 2018 में सुभाष पालेकर प्राकृतिक खेती की तकनीक शुरू हुई. उस दौरान पहले ही साल में 628 हेक्टेयर भूमि पर प्राकृतिक खेती की तकनीक से फसल तैयार की गई. इसके बाद धीरे-धीरे किसान प्राकृतिक खेती से जुड़ते गए. जिसकी वजह से आज प्रदेश में 35,004 हेक्टेयर क्षेत्र में प्राकृतिक खेती की जा रही है. सरकार के प्रयास से अब तक 2,73,161 किसानों को प्राकृतिक खेती की ट्रेनिंग दी जा चुकी है. इसमें से अब 1,97,363 किसान प्राकृतिक खेती कर रहे हैं. वहीं, प्रदेश में जब प्राकृतिक खेती आरंभ हुई तो समय 1160 पंचायतों में किसानों ने इस तकनीक को अपनाया था. आज प्रदेश की 3584 पंचायतों में किसान प्राकृतिक खेती की तकनीक को स्वीकार कर जहर वाली रासायनिक खेती को बाय-बाय कह चुके हैं.
क्या है प्राकृतिक खेती?
प्राकृतिक खेती एक सूक्ष्म जीवाणुओं की खेती है. प्राकृतिक खेती में जैविक खेती की तरह जैविक कार्बन खेत की ताकत का इंडिकेटर नहीं है, बल्कि केंचुए और जीवाणुओं की मात्रा व गुणवत्ता खेत की ताकत के द्योतक होते हैं. खेत में जब जैविक पदार्थ विघटित होता है और जीवाणु व केंचुए बढ़ते हैं तो खेत का जैविक कार्बन खुद ही बढ़ जाता है. प्राकृतिक खेती में जीवामृत व घनाजीवामृत के माध्यम से जीवाणुओं का कल्चर डाला जाता है. यह जीवामृत जब सिंचाई के साथ खेत में दिया जाता है तो इसमें मौजूद जीवाणु भूमि में जाकर मल्टीप्लाई करने लगते हैं. इनमें ऐसे अनेक जीवाणु होते हैं जो वायुमंडल में उपस्थित 78 फीसदी नाइट्रोजन को पौधे की जड़ों व भूमि में स्थिर कर देते हैं. पोषक तत्वों की उपलब्धता बढ़ाने में जीवाणुओं के साथ केंचुआ भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है. जो भूमि की जुताई करके निचली सतहों से पोषक तत्व लेकर पौधे की जड़ों को उपलब्ध करवाता है.
केंचुओं के अलावा भूमि के अन्य जीव-जन्तु (जैसे कि चींटी इत्यादि) भी प्राकृतिक तौर पर जुताई करते रहते हैं. शोध परिणामों में पाया गया है कि जो बैक्टीरिया व फंगस जैसे ट्राइकोडर्मा, सुडोमोनास, बवेरिया आदि जो पौधे के लिए लाभदायक होते हैं. वह सभी जीवामृत और घनाजीवामृत में मौजूद रहते हैं. माइकोराइजा फंगस केंचुए की कास्ट में भरपूर मात्रा में मौजूद रहती है. यह सभी जीवाणु और केंचुए भूमि व पौधों में कीट व बीमारियों के प्रति प्रतिरोधक क्षमता प्रदान करते हैं. प्राकृतिक खेती में रासायनिक व जैविक खेती की तरह ग्लोबल वार्मिंग पैदा करने वाली गैसों का उत्सर्जन होने की संभावना भी बहुत कम है.
प्राकृतिक खेती में देशी गाय का महत्व
प्राकृतिक खेती में भारतीय नस्ल की गाय का अधिक महत्व है. देशी गाय की नस्ल के 1 ग्राम गोबर में 300 से 500 करोड़ जीवाणु पाए जाते हैं. वहीं, जर्सी व हास्टन फिजियन नस्ल की गाय के 1 ग्राम गोबर में 70 से 80 लाख जीवाणु होते हैं, जो गाय दूध नहीं देती है, उसके गोबर में जीवाणु और भी बढ़ जाते हैं. एक देशी गाय से 30 एकड़ क्षेत्र में प्राकृतिक खेती की जा सकती है. वहीं, जैविक पद्धति में 30 गाय से 1 एकड़ में ही खेती की जा सकती है. प्राकृतिक खेती में जीवामृत व घनाजीवामृत महत्वपूर्ण जैविक उर्वरक हैं. जिसका उपयोग मिट्टी की उर्वरकता बढ़ाने और सूक्ष्म जीवों को सक्रिय करने के लिए किया जाता है, जिसके लिए गोबर, गोमूत्र, गुड़ मीठे फल, दाल का बेसन और पेड़ के नीचे की एक मुटठी भर मिट्टी की आवश्यकता रहती है.
ये जैविक उर्वरक गर्मियों में 3 से 4 दिन और सर्दियों के मौसम में 5 से 6 दिन में तैयार होता हैं. इसके अतिरिक्त इस खेती में गोबर, गोमूत्र व तम्बाकू, लहसुन, मिर्ची व अन्य पौधों के पत्तों, खट्टी लस्सी से कीटनाशक व रोगनाशक दवाएं बनाकर छिड़काव किया जा सकता है. प्राकृतिक खेती अपनाने से जमीन की उर्वरा शक्ति बढ़ेगी. जल की खपत 70 फीसदी कम होगी. भारत में साहिवाल, गीर, रेड सिंधी, देओनी, थारपारकर, राठी, नागौरी, ओंगोल व हिमाचल लोकल आदि भारतीय नस्ल की गाय है.
रासायनिक कृषि के दुष्प्रभाव
पिछले दशकों से फसलों को रोग से बचाने के लिए कीटनाशक व रोगनाशक दवाओं का अंधाधुंध इस्तेमाल हो रहा है. इसके साथ ही अधिक उत्पादन की चाह में रासायनिक उर्वरकों का अत्यधिक प्रयोग हो रहा है. इन विषैली रासायनिक जीवनाशी दवाइयों के प्रयोग से नाशीजीवों में प्रतिरोधक क्षमता उत्पन्न हो रही है. साथ ही इन विषैले रसायनों के अवशेष फसलों, मिट्टी एवं पानी में रह जाते हैं, जिससे मानव शरीर पर दुष्प्रभाव पड़ने के साथ वातावरण भी प्रदूषित हो रहा है. ये भी एक कारण है कि रासायनिक खेती से तापमान में वृद्धि हो रही है. इसके साथ ही फसल अवशेषों के जलाने से वातावरण को गर्म करने वाली गैसें जैसे मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड व सीएफसी की मात्रा में बढ़ोतरी दर्ज की जा रही है. ऐसे में रासायनिक खेती के दुष्प्रभावों को कम करने के लिए प्राकृतिक खेती के विकल्प पर अधिक ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता है. जिससे कि पर्यावरण की सुरक्षा के साथ-साथ फसल लागत मूल्य भी कम किया जा सकता है.
प्राकृतिक कृषि अपनाने से किसान रासायनिक खादों व रासायनिक कीटनाशक दवाइयों पर होने वाले खर्चे से बच सकते हैं. इसके साथ ही विदेशों से उर्वरकों का आयात न करके विदेशी मुद्रा बचाई जा सकती है. प्राकृतिक कृषि एक समेकित कृषि की तकनीक है, जिसमें बीजामृत, घनाजीवामृत, जीवामृत, आच्छादन व स्वदेशी केंचुओं का लाभ उठाकर व वनस्पति आधारित कीटनाशक दवाओं के साथ अंतफसल फसल चक्र आदि तकनीकों का प्रयोग किया जाता है. इस विधि से पैदा किए गए उत्पाद उच्च गुणवत्ता के कारण बाजार में अधिक महंगे बिकते हैं, जो कि स्वास्थ्य की दृष्टि से लाभदायक होते हैं. वहीं, आने वाले समय में प्राकृतिक कृषि एक दीर्घकालीन टिकाऊ खेती के सपने को साकार कर सकती है.
2030 तक प्राकृतिक खेती पूरा करने का लक्ष्य
कृषि विभाग में नेचुरल फार्मिंग के डिप्टी डायरेक्टर मोहिंदर सिंह भवानी ने कहा, "प्राकृतिक खेती में हमारा प्रदेश आगे बढ़ रहा है. सरकार ने साल 2030 तक प्राकृतिक खेती को पूरा करने का लक्ष्य रखा है. हालांकि, रासायनिक खेती के दौर में ये काफी चुनौतीपूर्ण भी है. लेकिन किसानों के सहयोग से इसे पूरा किया जाएगा. प्राकृतिक खेती गौ आधारित खेती है, जिसमें खाद और केमिकल का प्रयोग नहीं होता है. घर पर ही देसी गाय के गोबर और गोमूत्र से घटक तैयार किए जाते हैं. प्राकृतिक खेती एक मल्टी क्रॉपिंग सिस्टम है, जिसके काफी पॉजिटिव रिजल्ट आ रहे हैं".
मोहिंदर सिंह भवानी ने कहा कि हिमाचल में वर्ष 2018 में प्राकृतिक खेती की शुरुआत हुई थी. उस साल प्राकृतिक खेती से जोड़ने के लिए 500 किसानों का लक्ष्य रखा गया था, लेकिन प्रदेश में आज छह साल की अवधि में 1.98 लाख किसान प्राकृतिक खेती कर रहे हैं. देश में 1966 में हरित क्रांति आई थी. कृषि में अधिक उपज लेने के लिए फसलों में खाद डालने की प्रक्रिया शुरू हुई थी. उस समय एक हेक्टेयर में 23 किलो खाद का प्रयोग किया जाता था, जो अब एक हेक्टेयर में 54 किलो खाद के आंकड़े तक पहुंच गई है. जिस कारण लोग कैंसर जैसी घातक बीमारियों की चपेट में आ रहे हैं. खाद के अत्यधिक प्रयोग से जमीन को रसायन की आदत पड़ गई है, इससे जमीन खराब हो चुकी है. इस तरह की स्थिति से निपटने के लिए प्राकृतिक खेती ही एक मात्र विकल्प है. जिससे मिट्टी की उर्वरक क्षमता जैव विविधता को बढ़ाया जा सकता है.
प्राकृतिक खेती से अधिक लाभ
मोहिंदर सिंह भवानी का कहना है कि रासायनिक खेती की तुलना में प्राकृतिक खेती अधिक फायदेमंद है. केमिकल खेती में इनपुट कॉस्ट अधिक है. वहीं, प्राकृतिक खेती के लिए जरूरी संसाधन घर पर ही उपलब्ध होते हैं. ऐसे में रासायनिक खेती की तुलना में प्राकृतिक खेती की तकनीक अपनाकर 27 फीसदी अधिक लाभ कमाया जा सकता है. सरकार प्राकृतिक खेती से तैयार उत्पादों को बेचने के लिए 10 मंडियां खोलने जा रही हैं. अभी प्राकृतिक खेती से तैयार सरप्लस उत्पादों एकत्रित करने को फार्मर प्रोड्यूसर कंपनी (FPC) गठित की गई है, जो 100 के करीब किसानों का एक समूह होता है. सरप्लस उत्पादों बेचने के लिए शिमला के बालूगंज, सोलन में सब्जी मंडी के नजदीक, बिलासपुर में नम्होल मंडी जिला के सुंदरनगर में आउट लेट भी स्थापित किए गए हैं. जहां पर लोग प्राकृतिक खेती से तैयार किए गए उत्पादों को खरीद सकते हैं.
वहीं, प्राकृतिक खेती में पद्म श्री से सम्मानित नेक राम शर्मा ने कहा, "प्राकृतिक खेती किसानों के साथ पर्यावरण के लिए भी फायदेमंद है. रासायनिक खेती में जो केमिकल प्रयोग होते हैं, वे बारिश के पानी के साथ बहकर प्राकृतिक स्रोतों को भी दूषित कर रहे हैं. इसी पानी को लोग पीने के प्रयोग में लाते हैं, जिससे ये जहर लोगों के शरीर में मिल रहा है. वहीं, केमिकल हवा में धुलकर वातावरण को भी नुकसान पहुंचाते हैं. ऐसे में इसका एक मात्र विकल्प प्राकृतिक खेती हैं. प्राकृतिक खेती में लागत कम लगने से किसान अधिक लाभ कमा सकते हैं. प्राकृतिक खेती की तकनीक को कई दशक पहले अपनाया जाना चाहिए था, लेकिन फिर भी साल 2018 में प्राकृतिक खेती की तकनीक की शुरुआत कर सरकार ने देर से ही सही पर अच्छा कदम उठाया है".