उत्तरकाशीःहर्षिल घाटी के आठ गांवों के सेब काश्तकार अंतरराष्ट्रीय सेब महोत्सव के विरोध में कलक्ट्रेट परिसर में ढोल-नगाड़ों के साथ गरजे. सेब काश्तकारों का कहना है कि हर्षिल घाटी में सेब की तुड़ान शुरू हो चुकी है, लेकिन अभी तक झाला में करोड़ों की लागत से तैयार कोल्ड स्टोर का संचालन शुरू नहीं हो पाया. इस कारण सेब काश्तकारों को सेब के अच्छे दाम नहीं मिल पा रहे हैं. दूसरी ओर प्रदेश सरकार उच्च गुणवत्ता के लिए प्रसिद्ध हर्षिल के सेब के पीछे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी पीठ थपथपाना चाहती है.
हर्षिल घाटी के सेब काश्तकार शुक्रवार को रामलीला मैदान में एकत्रित हुए. उसके बाद घाटी के दर्जनों सेब काश्तकारों ने ढोल-दमाऊं के साथ जिला कलक्ट्रेट मुख्यालय कूच किया. यहां पर सेब काश्तकारों ने कृषि मंत्री के खिलाफ जमकर नारेबाजी की. हर्षिल घाटी के सेब काश्तकारों हर्षिल प्रधान दिनेश रावत, सतेंद्र पंवार, संजय पंवार, माधवेंद्र रावत, उमेश पंवार ने कहा कि प्रदेश सरकार चाहती है कि देहरादून में आयोजित सेब महोत्सव में हर्षिल घाटी के सेबों की प्रदर्शनी लगाई जाई. जबकि, कृषि मंत्री और प्रदेश सरकार की और सेब काश्तकारों की अनदेखी की गई है. इसलिए अंतरराष्ट्रीय सेब महोत्सव का विरोध कर एक भी सेब महोत्सव में नहीं भेजा गया.
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सेब काश्तकारों ने मुख्यमंत्री को प्रेषित ज्ञापन में कहा कि झाला में बना कोल्ड स्टोर अभी तक शुरू नहीं किया गया है. इस कारण सेब काश्तकारों को अच्छे दाम नहीं मिल पाए हैं. साथ ही कहा कि हर्षिल घाटी का सेब कश्मीर के सेब से गुणवत्ता में कहीं बेहतर हैं. फिर भी कृषि मंत्री अनर्गल बयानबाजी कर रहे हैं. काश्तकारों का कहना है कि आज सरकार की अनदेखी के कारण उन्हें नुकसान उठाना पड़ रहा है. जहां एक ओर कोविडकाल की मार रही तो वहीं अब सेब के दाम न मिलने से बड़ी समस्या खड़ी हो गई है.
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अंतरराष्ट्रीय सेब महोत्सवः देहरादून में आज से तीन दिवसीय अंतरराष्ट्रीय सेब महोत्सव का आयोजन शुरू हुआ है. महोत्सव 24, 25 और 26 सितंबर तक चलेगा. यह राज्य सरकार के उद्यान विभाग की ओर से आयोजित किया जा रहा है. इस महोत्सव का उद्देश्य उत्तराखंड के सेब को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाना है. उद्यान मंत्री सुबोध उनियाल की मानें तो उत्तराखंड का सेब जम्मू-कश्मीर और हिमाचल के सेब से किसी भी मामले में कम नहीं है. ऐसे में पूर्व में किए गए प्रयासों के साथ पहली बार अंतरराष्ट्रीय सेब महोत्सव मनाकर उत्तराखंड के सेब को ब्रांड बनाने की कोशिश की जा रही है.
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उत्तरकाशी जिला सेब का सिरमौरःउत्तराखंड में सेब का सर्वाधिक उत्पादन उत्तरकाशी जिले में होता है. यहां 20 हजार मीट्रिक टन सेब का उत्पादन हर साल होता है. खासतौर पर गंगा और यमुना घाटी तो सेब उत्पादन के लिए खास पहचान रखती हैं. देश और प्रदेश में सेब की बढ़ती मांग के चलते यहां काश्तकारों का रुझान सेब उत्पादन में लगातार बढ़ रहा है. यहां के काश्तकारों ने पड़ोसी राज्य हिमाचल प्रदेश से सीख लेते हुए व्यावसायिक दृष्टिकोण अपनाया है. नतीजन हर साल सेब का क्षेत्रफल बढ़ रहा है और काश्तकारों की संख्या भी. सेब की मांग बढ़ने से काश्तकारों को भी अच्छा मुनाफा हो रहा है.
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इन वैरायटी के सेबों का होता है उत्पादनः उत्तरकाशी के आराकोट और हर्षिल क्षेत्रों में रॉयल डिलिशियस, रेड डिलिशियस और गोल्डन डिलिशियस प्रजाति के सेब होते हैं. इस प्रजाति के सेब के पेड़ काफी बड़े होते हैं और शीतकाल के दौरान इनके लिए अच्छी बर्फबारी भी जरूरी होती है. काश्तकार अब स्पर प्रजाति के रेड चीफ, सुपर चीफ और गोल गाला के पौधे लगा रहे हैं. वहीं, कम बर्फबारी होने पर भी स्पर प्रजाति के पेड़ों में उत्पादन पर कोई असर नहीं पड़ता है. इन पेड़ों की ऊंचाई बहुत अधिक नहीं होती और फलों की क्वालिटी और मात्रा भी अच्छी होती है. अब रूट स्टॉक विधि से सेब के पौधे लगाए जा रहे हैं, जो कम समय में फल दे देते हैं.
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सेब मंडी की घोषणा सफेद हाथीः उत्तरकाशी में सेब मंडी तक नहीं है. उत्तरकाशी के आराकोट में सेब मंडी खुलने की घोषणा तो हुई, लेकिन यह कवायद भी धरातल पर नहीं उतरी है. नतीजा, हिमाचल प्रदेश के आढ़ती ही उत्तराखंड का सेब खरीदकर उसे हिमाचल की पैकिंग में दूसरे राज्यों की मंडियों को भेजते हैं. कई बार सड़कें बंद होने पर सेब समय पर मंडी नहीं पहुंच पाता है. ऐसे में कई बार सेब वाहनों में पड़े-पड़े ही खराब होने लगते हैं. इससे काश्तकारों को काफी नुकसान उठाना पड़ता है. उधर, हर्षिल के झाला में कोल्ड स्टोरेज भी बंद पड़ा हुआ है. जिसे खोलने की मांग काश्तकार कर रहे हैं, लेकिन उनकी मांग पूरी नहीं हुई. इससे आक्रोशित काश्तकारों ने सेब महोत्सव का बहिष्कार किया.
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हर्षिल के सेब होते हैं काफी रसीलेः उत्तरकाशी जिले की हर्षिल घाटी में सेब की काफी पैदावार होती है. यहां के सेब काफी रसीले होते हैं. इनकी मिठास लोगों को अपनी ओर खींच लाती है. हर्षिल ऊंचाई पर स्थित होने और तापमान में कमी के कारण यहां के सेबों का तुड़ान देरी से शुरू होता है. जबकि, आराकोट बंगाण क्षेत्र के सेबों का तुड़ान जुलाई अंतिम सप्ताह से शुरू हो जाता है. अधिक ऊंचाई पर होने के कारण यहां के सेब मिठास में अलग ही पहचान रखते हैं. लेकिन सरकारों के ढीले रवैये और उचित बाजार उपलब्ध न होने के कारण आज भी उत्तराखंड का सेब पहचान के लिए मोहताज है.