उत्तरकाशीःसमुद्रतल से 11 हजार फीट की ऊंचाई पर भारत-चीन सीमा पर स्थित गरतांग गली का पुनर्निर्माण कार्य शुरू हो गया है. नायाब इंजीनियरिंग का नमूना और भारत-तिब्बत व्यापार का गवाह रहा दुनिया के सबसे खतरनाक रास्तों में शुमार ये विश्व धरोहर गरतांग गली का जल्द ही पर्यटक फिर से दीदार कर सकेंगे. उत्तरकाशी जिले के जाड़ गंगा घाटी में स्थित सीढ़ीनुमा यह मार्ग दुनिया के सबसे खतरनाक रास्तों में शामिल है. जो संरक्षण के अभाव में अपना अस्तित्व खो रहा था, लेकिन अब सरकार करीब 64 लाख रुपये की लागत से गरतांग गली का पुनर्निर्माण करा रही है, जिससे साहसिक पर्यटन को बढ़ावा मिल सके.
दरअसल, लोक निर्माण विभाग की ओर से करीब 64 लाख रुपये लागत से 150 मीटर लंबी गरतांग गली का जीर्णोद्धार कराया जा रहा है. खराब हो चुकी लकड़ी और लोहे को बदलकर रास्ता बनाया जा रहा है. डीएम मयूर दीक्षित का कहना है कि भारत-तिब्बत व्यापार का जीता जागता गवाह रही गरतांग गली पर लोनिवि ने काम शुरू कर दिया है, जो आने वाले समय में एडवेंचर टूरिज्म और इतिहास के दृष्टिकोण से काफी महत्वपूर्ण साबित होगा.
17वीं शताब्दी में पेशावर के पठानों ने चट्टान काटकर तैयार किया था रास्ता
17वीं शताब्दी (लगभग 300 साल पहले) पेशावर के पठानों ने समुद्रतल से 11 हजार फीट की ऊंचाई पर उत्तरकाशी जिले की नेलांग घाटी में हिमालय की खड़ी पहाड़ी को काटकर दुनिया का सबसे खतरनाक रास्ता तैयार किया था. कहा जाता है कि जाड़ समुदाय के एक सेठ ने व्यापारियों की मांग पर पेशावर के पठानों की मदद से गरतांग गली से एक सुगम मार्ग बनवाया था. करीब 150 मीटर लंबी लकड़ी से तैयार यह सीढ़ीनुमा गरतांग गली भारत-तिब्बत व्यापार की साक्षी रही है.
1962 से पूर्व भारत-तिब्बत के व्यापारी याक, घोड़ा-खच्चर एवं भेड़-बकरियों पर सामान लादकर इसी रास्ते से आते-जाते थे. गरतांग गली सबसे पुरानी व्यापारिक मार्ग हुआ करती थी. यहां से ऊन, गुड़ और मसाले वगैरह भेजे जाते थे. 1962 में भारत-चीन युद्ध के दौरान गरतांग गली ने सेना को अंतरराष्ट्रीय सीमा तक पहुंचाने में अहम भूमिका निभाई थी.
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गरतांग गली की सीढ़ियां आज की तकनीक को भी देती हैं चुनौती
गरतांग गली की सीढ़ियों को खड़ी चट्टान वाले हिस्से में लोहे की रॉड गाड़कर और उसके ऊपर लकड़ी बिछाकर रास्ता तैयार किया था. बेहद संकरा और जोखिम भरा यह रास्ता गरतांग गली के नाम से प्रसिद्ध हुआ. जो अपने आप में एक कारीगरी का एक नया नमूना था क्योंकि, गरतांग गली के ठीक नीचे 300 मीटर गहरी खाई है जबकि, नीचे जाड़ गंगा नदी भी बहती है.
पहाड़ पर उकेरा गया ये पुराना मार्ग आज भी लोगों के लिए रोमांच और हैरानी का सबब बना हुआ है. साल 1975 तक सेना भी इसका इस्तेमाल करती रही, लेकिन बाद में इसे बंद कर दिया गया. पिछले 46 वर्षों से गरतांग गली का उपयोग और रखरखाव न होने के कारण इसका अस्तित्व मिटता जा रहा है.
भारत-तिब्बत व्यापार की गवाह गरतांग गली
1962 की भारत-चीन युद्ध से पहले व्यापारी याक, घोड़ा-खच्चर एवं भेड़-बकरियों पर सामान लादकर इसी रास्ते से आते-जाते थे. व्यापारी इसी रास्ते से ऊन, चमड़े से बने वस्त्र व नमक लेकर बाड़ाहाट पहुंचते थे. बाड़ाहाट का अर्थ है बड़ा बाजार. उस वक्त दूर-दूर से लोग बाड़ाहाट आते थे और सामान खरीदते थे. युद्ध के बाद इस मार्ग पर आवाजाही बंद हो गई, लेकिन सेना का आना-जाना जारी रहा. करीब दस साल बाद 1975 में सेना ने भी इस रास्ते का इस्तेमाल बंद कर दिया है. तब से लेकर इस रास्ते में सन्नाटा पसरा हुआ है.
सामरिक दृष्टि से संवेदनशील क्षेत्र है नेलांग घाटी
गरतांग गली भैरव घाटी से नेलांग को जोड़ने वाले पैदल मार्ग पर जाड़ गंगा घाटी में मौजूद है. वन्यजीव और वनस्पति के लिहाज से ये जगह काफी समृद्ध है. उत्तरकाशी जिले की नेलांग घाटी चीन सीमा से लगी है. सीमा पर भारत की सुमला, मंडी, नीला पानी, त्रिपानी, पीडीए और जादूंग अंतिम चौकियां हैं.
नेलांग घाटी जाने के लिए इजाजत जरूरी
1962 में भारत-चीन युद्ध के बाद बने हालात के मद्देनजर भारत सरकार ने उत्तरकाशी के इनर लाइन क्षेत्र में पर्यटकों की आवाजाही पर प्रतिबंध लगा दिया था, तभी से नेलांग घाटी और जाडुंग गांव को खाली करवाकर वहां अर्धसैनिक बलों को तैनात किया गया था.