काशीपुर: 'खुद तराशना पत्थर और खुदा बना लेना, आदमी को आता है क्या से क्या बना लेना'. काशीपुर के चैती मेले में हथौड़े और छैनी से पत्थर को आकार देते इन मेहनतकशों को देखकर बरबस ही ये पंक्तियां याद आ गईं. चिलचिलाती धूप में पत्थर को तराशकर सिल बट्टे में ढालना हुनरमंदों का ही काम है. लेकिन इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के इस युग में इन हुनरमंदों को उनकी कारीगिरी का वाजिब दाम नहीं मिल पा रहा है. इसके पीछे लोगों का धीरे-धीरे परंपरागत वस्तुओं से मोह भंग होना भी मुख्य कारण है. पेश है खास रिपोर्ट...
बता दें कि इन दिनों काशीपुर के चैती मेले में सबसे पहले आकर, सबसे आखिर में जाने वाले इन कारीगरों के यहां यह काम पुराने जमाने से चला आ रहा है. पत्थर को तराशकर उसे सिलबट्टा, खरल और चक्की का रूप देना इनका खानदानी पेशा है. इन हाथ चक्की व सिल बट्टे से लोग अपना घरों में अनाज और मसाले खुद पीस लेते हैं. कारीगरों के मुताबिक पत्थर की चक्की और सिल बट्टे पर चटनी पीसने से किसी भी तरह कि बीमारी नहीं होती. साथ ही सिल बट्टे पर पिसे मसाले और चटनी का अपना अलहदा स्वाद है.
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सरकार भले ही गरीब लोगों के उत्थान के नाम पर कई योजनाएं चला रही हो, लेकिन उनका जमीनी लाभ कितनों को मिल पाया है इसका अंदाजा पत्थर को तराशकर अपनी रोजी रोटी के जुगत में लगे इन कारीगरों को देखकर लगाया जा सकता है. इसके मूल में अज्ञानता और जानकारी का अभाव भी है. जिसके चलते ये मेहनतकश सरकार द्वारा गरीबों के लिए चलाई जा रही कल्याणकारी योजनाओं से महरूम हैं.