टिहरी: जिले के घनसाली बूढ़ाकेदार में 500 वर्ष पहले से प्रत्येक वर्ष अमावस्या प्रतिपदा के दिन मंगशीर बग्वाल का त्योहार मनाया जाता हैं. जिसमें क्षेत्र के ही नहीं बल्कि, देश-विदेश के लोग भी इस त्योहार में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हैं. इस बार भी 3 दिवसीय मेले का आयोजन किया गया है.
टिहरी जिले के बूढ़ाकेदार में मनायी जाने वाली ऐतिहासिक बग्वाल अपने आप में एक आनोखी बग्वाल यानि दीपावली हैं. जिसको बूढ़ाकेदार के साथ ही गाजणा कठूड़ व नैल कठूड़ में यह दीपावली बड़े धूमधाम से मनायी गयी. बूढ़ाकेदार क्षेत्र के आराध्य देव गुरु कैलापीर देवता की पूजा अर्चना विधि विधान से की गयी. इसके साथ तीन दिन का भव्य मेले का आयोजन भी शुरू हो गया है.
गुरु कैलापीर में मंगशीर बग्वाल की धूम. गुरु कैलापीर मेले में खेतों में दौड़ लगाने की भी एक अनूठी परंपरा है. जिसमें देवता के साथ खेतों में दौड़ लगाकर पराल भी उछाला गया. कहा जाता हैं कि जब टिहरी राजशाही के दौरान गौरखाओं ने गढ़वाल पर आक्रमण किया था तो उस वक्त गुरु कैलापीर ने युद्ध में राजा का साथ दिया था, लेकिन ठीक एक माह बाद जब इस युद्ध को जीता तो लोगों ने तभी से यह बग्वाल मनानी शुरू की.
भिंलगना ब्लाॅक के बूढ़ाकेदार में मंगशीर पर्व की गुरु कैलापीर बग्वाल बड़े धूमधाम से मनायी जाती हैं. जिसमें क्षेत्र लोग ही नहीं, बल्कि देश-विदेश के लोग इस दीपावली को मनाने के लिये अपने घरों में आते हैं और बग्वाल पर्व धूमधाम से मनाते हैं.
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गुरु कैलापीर बग्वाल का महत्व: बूढ़ाकेदार गांव में लकड़ी से बने भैलों को जलाकर उन्हें खेतों में घुमाया जाता हैं, जिस पर गांव और आसपास के लोग भैलों को घुमा कर आनंद लेते हैं. वहीं, गुरु कैलापीर का निशाना मंदिर से बहार आकार लोगों को आर्शीवाद देते हैं. वहीं, खेतों में निशान के साथ सात चक्कर लगाकर देवता पर पराल की बौछारें फेंकी जाती हैं, जिससे लोगों को देवता का आर्शीवाद मिलता हैं.
गुरु कैलापीर बूढ़ाकेदार समिति के अध्यक्ष ने बताया कि इस इलाके के लोग इस दीवाली को गुरु कैलापीर देवता के आने की खुश में मनाते हैं. अमावास्या प्रतिपदा का दिन गुरु कैलापीर देवता एक साल में मंदिर के बाहर आते हैं. ऐसे में श्रद्धालु उनकी पूजा पाठ करके दर्शन करते हैं. गांव के खेतों में 7 बार दौड़ लगाते हैं. इस दौरान सभी लोगों को अपना आर्शीवाद देते हैं.
कौन हैं गुरु कैलापीर देवता?
गुरु कैलापीर देवता के बारे में बताया जाता है कि वह मूल रूप से चंपावत के रहने वाले थे. वहां पर गुरु कैलापीर देवता की पूजा पाठ पद्धति व्यवधान होने के कारण गुरु कैलापीर देवता अपने 54 चेलो 52 भड़ों के साथ नेपाल से श्रीनगर होते हुए बूढ़ाकेदार पहुंचे. टिहरी राजशाही के महाराजाओं व वीर भड़ के आराध्य रहे हे गुरु कैलापीर देवता राजाओ के सपने में आकर उनको हर बात में मदद करते थे, जिससे श्रीनगर के राजा मान शाह ने गुरु कैलापीर देवता को 90 जोला अलंकरण से नवाजा.
गुरु कैलापीर बग्वाल के बारे में कहा जाता है कि जब गोरखाओं ने कुमाऊं पर आक्रमण किया था, तो वीर माधो सिंह भंडारी के ईष्ट देव गुरु कैलापीर भी युद्व की भूमिका में थे, लेकिन गोरखाओं से युद्व काफी लबें समय तक चला, जिसमें माधो सिंह भंडारी नवंबर की दीपावली नहीं मना पाए. जिसको लेकर गुरु कैलापीर ने माधो सिंह से कहा कि तुम अपनी दीपावली ठीक इसी तारीख को अगले महीने बग्वाल के रूप में मनाना, जिससे आज भी यह परंपरा 500 साल पूर्व से चली आ रही हैं. यह दीपावली गाजणा कठूड़ए, नैल कठूड़ए, थाती कठूड़ए व उत्तरकाशी के क्षेत्र में यह दीपावली मनायी जाती हैं.