रुद्रप्रयाग:शारदीय नवरात्रि (Shardiya Navratri 2021) आज (7 अक्टूबर) से शुरू हो गई है. नवरात्रि के पहले दिन मां के मठ-मंदिरों में भक्तों का तांता लगा हुआ है. इसके अलावा मठ-मंदिरों के आसपास की दुकानें सजीं हुई हैं. भारी संख्या में भक्त मंदिरों में पहुंच रहे हैं, जो सोशल डिस्टेंसिंग के साथ पूजा-अर्चना कर रहे हैं.
नवरात्रि में नौ दिनों तक मां भगवती के अलग-अलग रूपों की पूजा की जाती है. पहले दिन मां शैलपुत्री की पूजा होती है. मां शैलपुत्री को पर्वतराज हिमालय की पुत्री माना जाता है. मान्यता है कि मां शैलपुत्री की जो श्रद्धालु सच्चे मन से उपासना करता है, उसकी सारी मुराद पूरी होती है.
बता दें कि, कोरोना महामारी का तीर्थाटन पर बुरा असर पड़ा है. इससे लोगों का रोजगार भी प्रभावित हुआ है. आज यानी गुरुवार से शुरू हो रहे शारदीय नवरात्रों को लेकर भक्तों में उत्साह का माहौल है. मां के मठ मंदिरों को फूलों और लड़ियों से सजाया गया है. व्यापारियों को आस है कि कोरोना महामारी के कारण ठप पड़ा व्यवसाय शारदीय नवरात्रों में चल पड़ेगा और उनकी आर्थिकी सुधर पाएगी. रुद्रप्रयाग जिले में मां के तीन प्रसिद्ध मठ मंदिर हैं, जहां पूरे नौ दिनों तक श्रद्धालु उमड़ते हैं और मां की पूजा-अर्चना व पाठ करते हैं.
कालीमठ मंदिर:मां शक्ति के 108 स्वरुपों में एक प्रसिद्ध शक्तिपीठ कालीमठ रुद्रप्रयाग जनपद में स्थित है. देवासुर संग्राम से जुड़ी यहां की ऐतिहासिक घटना में माता पार्वती ने रक्तबीज दानव के वध को लेकर कालीशिला में अपना प्राकटय रुप दिया था और कालीमठ में इस दानव का वध कर जमीन के अंदर समा गई थी. हिमालय में स्थित होने के कारण इस पीठ को गिरिराज पीठ के नाम से भी जाना जाता है और तंत्र साधना का यह सर्वोपरि स्थान माना जाता है. यहां पर मूर्ति पूजा का विधान नहीं है और न ही यहां देवी की कोई मूर्ति है. साथ ही यहां पर न ही कुछ ऐसे पद चिह्न हैं कि जिन्हें निमित मानकार पूजा की जा सके. मंदिर के गर्भ गृह में स्थित कुंडी की ही यहां पूजा की जाती है और बलिप्रथा के रुप में प्रसिद्ध इस धाम में अब बलि भी बंद हो चुकी है और नारियल से ही माता की पूजा की जाती है.
रुद्रप्रयाग-गौरीकुण्ड राष्ट्रीय राजमार्ग के गुप्तकाशी से पहले कालीमठ-कविल्ठा मोटर मार्ग पर करीब दस किमी की दूरी पर यह शक्ति पीठ है. जिसका केदारखंड, स्कन्द पुराण, देवी भागवत समेत कई पुराणों में कालीमठ का वर्णन मिलता है. मां काली, मां सरस्वती व मां लक्ष्मी की यहां पर पूजा होती है. मान्यता है कि यहां पर मां काली ने रक्तबीज नामक दैत्य का वध किया था और धरती के अन्दर समाहित हो गई थी. देवासुर संग्राम के दौरान रक्त बीज से मुक्ति पाने के लिए देवताओं ने मां भगवती की आराधना की थी और तब कालीशिला नामक स्थान पर मां का अवतरण हुआ था. मां ने जब रक्तबीज के अत्याचारों को सुना तो उनका शरीर क्रोध से काला पड़ गया और मां काली का प्रार्दुभाव हुआ.