रुद्रप्रयागःकेदारघाटी में पांडव लीला एवं नृत्य की अनूठी परंपरा है. हर साल एकादशी पर्व पर देव निशानों के गंगा स्नान के बाद घाटी के अनेक गांवों में पांडव नृत्य एवं लीलाओं का शुभारंभ हो जाता है. केदारघाटी के दरमोला, सेम, स्वीली, तरवाड़ी समेत अन्य गांवों में हर साल देव निशान और पांडवों के अस्त्र-शस्त्रों को अलकनंदा व मंदाकिनी नदी के पवित्र संगम स्थल पर गंगा स्नान कराया जाता है. इसके बाद देव निशान श्रद्धालुओं की जयकारों और स्थानीय वाद्य यंत्रों के साथ गांव के लिए रवाना होते हैं.
कहा जाता है कि गोत्र हत्या के पाप से मुक्ति को लेकर पांडव जब स्वर्गारोहिणी की ओर जा रहे थे तो केदारघाटी में आने पर पांडवों ने अपने अस्त्र-शस्त्रों को यहां के ग्रामीणों को सौंपे थे, जिससे ग्रामीण जनता इन अस्त्र-शस्त्रों की पूजा-अर्चना कर परंपरा का निर्वहन करते रहें. इसी परंपरा का निर्वहन आज भी केदारघाटी के लोग कर रहे हैं. केदारघाटी में आज भी पांडव नृत्य एवं लीलाओं का भव्य तरीके से मंचन होता है. कई गांवों में पांडव नृत्य एक महीने तक चलता है. नृत्य के बीच चक्रव्यूह, कमल व्यूह, दुर्योधन वध आदि लीलाओं का मंचन होता है.
केदारघाटी में गंगा स्नान के साथ पांडव नृत्य शुरू. केदारघाटी के दरमोला, स्वीली, तरवाड़ी और सेम गांव में पांडव नृत्य की अनूठी परंपरा (Pandav dance in Kedarghati) है. कार्तिक माह की एकादशी की पूर्व संध्या पर गांवों के देव निशान और पांडवों के अस्त्र-शस्त्र गंगा स्नान के लिए अलकनंदा व मंदाकिनी नदी के संगम पर पहुंचते हैं. रात्रि जागरण के बाद ब्रहमबेला पर सभी देव निशानों और अस्त्र-शस्त्रों को गंगा स्नान करवाया जाता है. स्नान होने के बाद सभी निशानों और अस्त्र-शस्त्रों की भव्य पूजा की जाती है. इस दौरान देवता और पांडव नर रूप में अवतरित होकर भक्तों को आशीष देते हैं. भक्त भी काफी संख्या में पहुंचकर भगवान से आशीर्वाद लेते हैं.
गंगा स्नान के बाद चारों गांवों में एक-एक करके पांडव नृत्य एवं लीला का आयोजन किया जाता है. पूरे एक महीने तक चलने वाली पूजाओं को डिमरी वंशज के पुजारी संपन्न कराते हैं, क्योंकि डिमरी वंशज के लोग भगवान बदरी विशाल के पुजारी होते हैं. सदियों से चली आ रही इस अनूठी परंपरा को बरकरार रखने में ग्रामीण आज भी अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं.
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गढ़वाल मंडल में हर साल नवंबर से लेकर फरवरी महीने तक पांडव नृत्य का आयोजन किया जाता है. प्रत्येक गांवों में पांडव नृत्य के आयोजन की अलग-अलग रीति रिवाज एवं पौराणिक परंपराएं होती हैं. कहीं दो साल तो कहीं पांच से दस सालों बाद पांडव नृत्य का आयोजन होता है, लेकिन भरदार क्षेत्र के ग्राम पंचायत दरमोला एकमात्र ऐसा गांव है. जहां हर साल एकादशी पर्व पर देव निशानों के मंदाकिनी व अलकनंदा के तट पर गंगा स्नान के साथ पांडव नृत्य शुरू करने परंपरा है.
इस गांव में यह परंपरा सदियों पूर्व से चली आ रही है. एकादशी की पूर्व संध्या पर दरमोला व स्वीली, सेम के ग्रामीण भगवान बदरी विशाल, लक्ष्मीनारायण, शंकर नाथ, नागराजा, चामुंडा देवी, हीत, भैरवनाथ समेत कई देवताओं के निशानों एवं गाजे बाजों के साथ अलकनंदा व मंदाकिनी के संगम तट पर पहुंचते हैं. यहां पर रात्रि को जागरण एवं देव निशानों की चार पहर की पूजा अर्चना की जाती है.
ग्राम पंचायत दरमोला में दो स्थानों पर पांडव नृत्य करने की परंपरा है. एक साल दरमोला तो दूसरे साल तरवाड़ी में पांडव नृत्य का आयोजन होता है. इसके अलावा अन्य तीन गांवों में भी पांडव नृत्य का आयोजन बारी-बारी से किया जाता है. आज एकादशी पर्व पर तड़के सभी देव निशानों एवं बाणों को गंगा स्नान कराने के बाद उनका श्रृंगार किया गया. इसके बाद पुजारी एवं अन्य ब्राह्मणों के वैदिक मंत्रोच्चारण के बाद देव निशानों की विशेष पूजा-अर्चना, हवन एवं आरती की गई.
इस दौरान संगम तट पर दूर दराज क्षेत्रों से देव दर्शनों को पहुंचे भक्तों को नर रूप में अवतरित देवताओं ने अपना आशीर्वाद दिया. इसके बाद देव निशानों को गांव में ले जाकर पांडव नृत्य का आयोजन शुरू किया गया. जिसको लेकर पांडव नृत्य समिति ने तैयारियां पूरी कर ली हैं. एक ओर जहां ग्रामीण अपनी अटूट आस्था के साथ संस्कृति को बचा रहे है तो वहीं दूसरी ओर आने वाली पीढ़ी भी इससे रूबरू हो रही है.
गंगा स्नान के लिए न लाने पर होती है अनहोनीः मान्यता है कि एकादशी के दिन भगवान विष्णु ने पांच महीनों की निद्रा से जागकर तुलसी से साथ विवाह संपन्न हुआ था. यह दिन देव निशान के गंगा स्नान के लिए शुभ माना गया है. बताया जाता है कि यदि इस दिन देव निशानों को गंगा स्नान के लिए नहीं लाया गया तो गांव में कुछ न कुछ अनहोनी अवश्य होती है. इसलिए ग्रामीण इस दिन को कभी नहीं भूलते हैं. पांडव काल का स्कंद पुराण के केदारखंड में इसका पूरा वर्णन मिलता है.
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