रुद्रप्रयाग: शारदीय नवरात्रि के पर्व पर सभी भक्त माता के दर पर पहुंच रहे हैं. वहीं पूरे देश में व्याप्त मां शक्ति के 108 स्वरूपों में से प्रसिद्ध शक्तिपीठ कालीमठ रुद्रप्रयाग जिले में स्थित है. देवासुर संग्राम से जुड़ी एक घटना में माता पार्वती ने रक्तबीज दानव के वध को लेकर कालीशिला में अपना प्राकट्य रूप को धारण किया था. उसके बाद कालीमठ में इस दानव का वध कर माता जमीन के अन्दर समा गई थीं. वहीं, इस धाम में पूजा के लिए भक्त दूर-दूर से आते हैं. साथ ही यहां पर मूर्ति पूजा नहीं होती है.
कालीमठ में मां ने किया था रक्तबीज का वध. हिमालय में स्थित होने के कारण इस पीठ को गिरिराज पीठ के नाम से भी जाना जाता है. तंत्र साधना का ये सर्वोपरि स्थान है. यहां पर मूर्ति पूजा का विधान नहीं है और ना ही यहां देवी की कोई मूर्ति स्थापित है. मंदिर के गर्भ गृह में स्थित कुण्डी की ही पूजा की जाती है और बलिप्रथा के रूप में प्रसिद्ध इस धाम में अब बलि भी बन्द हो चुकी है और नारियल से ही माता की पूजा की जाती है.
रुद्रप्रयाग-गौरीकुण्ड राष्ट्रीय राजमार्ग के गुप्तकाशी से पहले कालीमठ-कविल्ठा मोटर मार्ग पर करीब 10 किमी की दूरी पर ये शक्ति पीठ स्थित है. कालीमठ का केदारखण्ड, स्कन्द पुराण, देवी भागवत समेत कई पुराणों में वर्णन मिलता है. मां काली, मां सरस्वती और मां लक्ष्मी की यहां पर पूजा होती है. मान्यता है कि यहां पर मां काली ने रक्तबीज नामक दैत्य का वध किया था और धरती के अन्दर समाहित हो गई थीं. देवासुर संग्राम के दौरान रक्त बीज से मुक्ति पाने के लिए देवताओं ने मां भगवती की आराधना की थी. तब कालीशिला नामक स्थान पर मां का अवतरण हुआ. मां ने जब रक्तबीज के अत्याचारों को सुना तो उनका शरीर क्रोध से काला पड़ गया और मां काली का प्रार्दुभाव हुआ.
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पुराणों में वर्णित है कि गिरिराज पीठ आलौकिक शक्तियों से परिपूर्ण है और ये धाम तंत्र साधना के लिए सबसे अधिक उपयुक्त है. यही कारण है कि यहां देश-विदेश से साधक साधना के लिए पहुंचते हैं. मुख्य मंदिर में महज एक कुण्डी है, जिसके भीतर देवी का यंत्र स्थित है, जो कि पूरी तरह से बन्द है. नवरात्र के दौरान अष्टमी की रात्रि को इस कुण्डी को खोला जाता है. अर्धरात्रि में बंद आंखों से इस कुण्डी की सफाई होती है और इसे कोई भी खुली आंखों से नहीं देख सकता है. इसके साथ ही यहां पर प्रतीक स्वरूप रात्रि में ही रक्तबीज दानव का वध भी किया जाता है. मशालों को रक्तबीज शिला पर फेंका जाता है और सुबह शिला पर रक्त के थक्के साफ दिखाई देते हैं. यहां पहले पशुबलि बड़े पैमाने पर होती थी और सैकड़ों की संख्या में बकरियों और भैसों की बलि दी जाती थी. बाद में स्थानीय गबर सिंह राणा ने इस प्रथा का विरोध किया और यहां बलि प्रथा को बन्द करवाया.