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स्वाधीनता की लड़ाई में कुली बेगार प्रथा का अहम रोल, भागने पर मजबूर हुए थे अंग्रेज - Rudraprayag Independence Day News

भारत की आजादी में गढ़वाल क्षेत्र का अहम योगदान रहा है. स्वाधीनता की लड़ाई में पहली कामयाबी कुली बेगार प्रथा को दिया जाता है, जिसके जरिए अंग्रेजों को पहली बार भागने पर मजबूर होना पड़ा था.

Rudraprayag Coolie Begar
Rudraprayag Coolie Begar

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Published : Aug 15, 2021, 7:13 PM IST

रुद्रप्रयाग:भारत की आजादी की लडाई में गढ़वाल क्षेत्र का बड़ा योगदान रहा है. स्वाधीनता की लड़ाई में पहली कामयाबी यहां की कुली बेगार प्रथा को दिया जाता है, जिसके जरिये अंग्रेजों को पहली बार भागने पर मजबूर होना पडा था. ब्रिटिश काल की एक जघन्य प्रथा, जिसे कुली बेगार या वरदायश प्रथा के नाम से जाना जाता था और पूरा कुमांयू व गढ़वाल इस गुलामी व दास्तां की प्रथा से त्रस्त था.

जनता के आंदोलन के आगे ब्रिटिश सरकार को इस प्रथा का अंत करना पड़ा और स्वयं महात्मा गांधी ने तार भेजकर इस जीत को स्वतंत्रता के आंदोलन की पहली जीत बताया था. यह ऐतिहासिक स्थल आज भी मौजूद है. तत्कालीन चमोली जनपद के ककोड़ाखाल जो अब रुद्रप्रयाग जनपद का हिस्सा है. यहां आज भी बेगार प्रथा से जुड़ी निशानियां मौजूद हैं, जिनका जिक्र इतिहास के पन्नों में है.

कुली बेगार प्रथा को खत्म कर लड़ी स्वाधीनता की लड़ाई.

रुद्रप्रयाग जनपद के विकासखंड अगस्त्यमुनि के अंर्तगत दूरस्त क्षेत्र में मौजूद है ककोडाखाल गांव, जो भारत की आजादी में एक बड़ी क्रान्ति का गवाह है. इस कुप्रथा से त्रस्त होकर कुमांयू क्षेत्र में बद्रीदत्त पांडे एवं गढ़वाल क्षेत्र में अनुशूया प्रसाद बहुगुणा ने मोर्चा संभाला और जनता को एक जुट किया. तत्कालीन समय में गढ़वाल भी कुमांयू कमिश्नरी का हिस्सा था और 13 जनवरी, 1921 को तत्कालीन कुमांयू डिप्टी कमिश्नर पी मेशन को अपने सिपेसलाहकारों व परिवारजनों के साथ कर्णप्रयाग में मकर संक्रान्ति के मेले के लिए पहुंचना था.

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12 जनवरी, 1921 को पी मेशन अपने लाव लक्शर के साथ पैदल कोठगी से ककोड़ाखाल पहुंचे. यहां पहले से अनुसूया प्रसाद बहुगुणा के साथ ही क्षेत्र के 72 गांवों के लोग इस प्रथा के विरोध के लिए पहुंच गये और यहां काफी हो-हल्ला भी हुआ. जिस पर पी मेशन ने गोली चलाने के आदेश दे दिये और हवा में दो राउंड फायरिंग भी हुई. लेकिन भारी जनाक्रोश को देखते हुए पी मेशन को गोली चलाने का आदेश वापस लेना पड़ा.

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कुली बेगार प्रथा के अंर्तगत यहां लागों को दासता भरा जीवन जीना पड़ता था. जब भी राजा या फिर अंग्रेज अधिकारी यहां दौरे पर आते थे, तो उनके रहने खाने एवं पालकी ढोने की व्यवस्था यहां के लोगों को करनी पड़ती थी. साथ ही अनाज के साथ ही कई बहुमूल्य वस्तुएं भी वरदायश के तौर पर भेंट करनी पड़ती थीं. इसमें कोई भी रियायत नहीं मिलती थी. अगर कहीं चूक हो गयी तो जघन्य दण्ड भी दिये जाते थे.

जिसके बाद क्षेत्र के 72 गांवों के ग्रामीणों ने इस कुप्रथा की खुली खिलाफत की और दास्तां की जिन्दगी से मुक्ति पाने के लिए वृहद आंदोलन किया, जिसका नतीजा यह हुआ कि अंग्रेज तो रातो रात यहां से भागे और प्रथा भी समाप्त हुई. मगर इन 72 गांवों को 10 नम्बरी घोषित कर दिया गया और विकास के नाम पर मिलने वाले धन को बन्द कर दिया गया. मालगुजारों की मालगुजारी छीनी गयी तो, पदानों की पदानचारी समाप्त कर दी गयी.

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