पिथौरागढ़:गोवंशीय जानवर सदियों से मानव जाति की सेवा करते आ रहे हैं. इन्हीं में से एक है उच्च हिमालयी इलाकों की लाइफ लाइन कहा जाने वाला 'झब्बू', जो सामान ढोने, खेती करने और माइग्रेशन के काम आता है. याक प्रजाति का ये जानवर ना सिर्फ हिमालयी जनजीवन का एक अहम हिस्सा है, बल्कि हिमालयन संस्कृति का भी प्रतीक बना हुआ है.
याक और चंवर गाय की क्रॉस ब्रीडिंग से पैदा होने वाले नर बच्चे को 'झब्बू', और मादा को 'चंवर' गाय कहा जाता है. ये दोनों ही खास विशेषताएं लिए हुए हैं. झब्बू जहां बैल से चार गुना अधिक शक्तिशाली होता है. वहीं चंवर गाय का दूध बेहद पौष्टिक और पवित्र माना जाता है. शास्त्रों में भगवान के दुग्धाभिषेक के लिए चंवर का दूध सर्वोत्तम माना गया है. आयुर्वेद के प्रसिद्ध ग्रन्थ चरक संहिता में भी चंवर गाय का उल्लेख मिलता है. आधुनिक प्राणीशास्त्र में पालतू चंवर को पेफागुस गुन्नीएन्स गुन्नीएन्स लिनिअस (Prophages gunnies gunnies Linnaeus) कहते हैं.
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जबकि, वनचंवर को पेफागुस गुन्नीएन्स लिनिअस (Prophages gunnies Linnaeus) कहा जाता है. याक प्रजाति का झब्बू सबसे अधिक ऊंचाई वाले इलाकों में पाये जाने वाले चौपाया जानवरों में से है. 20 हजार फीट की ऊंचाई पर भी ये पहुंच सकता हैं. खास बात यह है कि झब्बू को याक की तरह बर्फीले या ऊंचाई वाले इलाके की जरूरत नहीं होती है. वह निचले इलाकों में भी जीवित रह जाता है. उच्च हिमालयी इलाकों में निवास करने वाली जनजातियों के लिए ये समान ढोने और कृषि कार्यों के लिए उपयोग में लाया जाता है. यही नहीं इसकी सवारी भी की जा सकती है. उच्च हिमालयी क्षेत्रों के ग्रामीण इसी के मदद से माइग्रेशन करते हैं.
झब्बू पालतू गाय-बैल से बड़े नहीं होते, लेकिन ऊंचे कंधे तथा बड़े बालों के कारण ये अधिक रोबीले दिखाई पड़ते हैं. ये छह फुट ऊंचे और लगभग सात फुट लंबे होते हैं. झब्बू में प्रजनन क्षमता नहीं होती, मगर यह काफी शक्तिशाली होता है. उसकी ताकत का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि चार बैलों का काम सिर्फ एक झब्बू कर लेता है. ग्लोबल वार्मिंग और लोक संस्कृति में आये बदलाव के अब यह जानवर दुर्लभ श्रेणी में पहुंच गया है. इसके संरक्षण को लेकर भी सरकारी स्तर पर प्रयास किये जा रहे हैं. एक समय था जब पिथौरागढ़ के उच्च हिमालयी इलाकों में ये हजारों की तादात में पाए जाते थे. मगर, अब इनकी संख्या घटकर मात्र 150 पहुंच गयी है.
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12 हजार 300 फीट की ऊंचाई पर स्थित कुटी के रहने वाले पान सिंह कुटियाल बताते हैं कि बदलते सामाजिक परिवेश में भले ही झब्बू पालने वाले लोगों की संख्या कम हो गयी है. मगर, आज भी ये बहुत उपयोगी जानवर है. इसे कृषि कार्य, सामान ढोने और माइग्रेशन में इस्तेमाल किया जाता है. उच्च हिमालयी क्षेत्रों में सड़क पहुंचने के बाद अब वे सर्दियों में इसे निचले इलाकों में ले जाते हैं और गर्मियों में इसी में समान लड़कर उच्च हिमालयी इलाकों की ओर माइग्रेशन करते हैं.