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जान हथेली पर रखकर स्कूल जाने को मजबूर बेटियां, तीन माह से बंद है पैदल मार्ग - बेरीनाग न्यूज

राया, बजेता गांव तल्ला जोहार के अति दूरस्थ गांव प्रशासन की उदासीनता का खामियाजा भुगत रहे हैं. यहां 10 किमी लंबी सड़क का कार्य कछुआ गति से चल रहा है. गांव के छात्र चट्टानों के बीच से स्कूल जाने को मजबूर हैं.

जान हथेली पर

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Published : Aug 25, 2019, 10:36 AM IST

बेरीनागःथल के पास नाचनी क्षेत्र में 'बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ' अभियान की पोल खुलती नजर आ रही है. नाचनी के राया बजेता गांव के तीन दर्जन से अधिक बच्चों का स्कूल जाने वाला पैदल मार्ग पिछले तीन माह से बंद चल रहा है. स्कूल 10 किमी दूरी पर होने के कारण चट्टानों के बीच से जान हथेली में रखकर जाना पड़ रहा है. राया, बजेता गांव तल्ला जोहार के अति दूरस्थ गांव हैं. इन गांवों के लिए प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना के तहत 10 किमी सड़क स्वीकृत है. सड़क के निर्माण की गति इस कदर धीमी है कि आने वाले 10 सालों में भी सड़क बन पाएगी यह कह पाना कठिन है.

आज भी गांव के लोगों को खाद्यान्न सहित अन्य सामान के लिए 10 किमी का ढलान कर फिर 10 किमी की चढ़ाई चढ़कर ले जाना पड़ता है. ग्रामीण इसे अपनी नियति मान चुके हैं. सड़क स्वीकृति की खुशी सड़क बनाने वाले विभाग ने आफत में बदल दी है.विभाग ने सड़क निर्माण का कार्य प्रारंभ किया. आधी अधूरी सड़क काटी और ऊपर से ग्रामीणों के पैदल मार्ग को भी ध्वस्त कर दिया. ग्रामीणों ने इसकी शिकायत प्रशासन से लेकर विभाग तक की परंतु किसी भी अधिकारी ने विषम परिस्थितियों में जी रहे दो गांवों के 100 से अधिक परिवारों के दर्द को देखने तक की जहमत नहीं उठाई .

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सबसे बड़ा खामियाजा इस गांव से रोज हाईस्कूल से आगे की पढ़ाई करने वाले 50 के आसपास छात्र भुगत रहे हैं. ये बच्चे 10 किमी दूर राइंका बांसबगड़ पढ़ने आते हैं. अभिभावक बताते हैं कि मार्ग की स्थिति देखते हुए साढ़े सात बजे खुलने वाले विद्यालय के लिए उनके बच्चे सुबह साढ़े चार बजे घर से रवाना होते हैं. दिन में डेढ़ बजे विद्यालय बंद होने के बाद सायं पांच बजे के बाद घर पहुंचते हैं. बच्चों के सकुशल घर पहुंचने के बाद ही माता-पिता व परिजन को सुकून मिलता है.

दूसरी ओर गांव के पूर्व प्रधान दरबान राम का कहना है कि इस संबंध में दर्जनों बार शासन, प्रशासन व विभाग से अनुरोध किया जा चुका है परंतु कोई सुनने वाला नहीं है. गांव के सरपंच उच्छाप सिंह कहते हैं कि जब गांव के बच्चे विद्यालय के घर लौटते हैं तो उनके चेहरों की थकान को देखकर ऐसा लगता है कि बच्चों को पढ़ने ही नहीं भेजा जाए परंतु बिना पढ़े बच्चों के भविष्य को देखते हुए यह नहीं कर सकते हैं. वह बताते हैं किसी भी मंच से उनकी आवाज शासन के कानों तक नहीं पहुंच रही है.

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