बेरीनागःपिथौरागढ़ जिले का बेरीनाग खूबसूरत शहर है. जो अपनी प्राकृतिक सौंदर्य, सांस्कृतिक, सामाजिक और धार्मिक मान्यताओं के लिए प्रसिद्ध है. यहां एक रहस्यमयी मंदिर भी है, जिसे वेणीनाग के नाम से जाना जाता है. यह नाग देवता का मंदिर है. जिसकी आस्था और महिमा दूर दूर है. वेणीनाग देवता मंदिर में दो प्रमुख मेले लगते हैं, जो उत्तराखंड में लगने वाले प्रमुख मेलों में से एक हैं.
बेरीनाग नगर में लगने वाला पहला मेला भाद्र शुक्ल पंचमी अर्थात ऋषि पंचमी को लगता है. जिसे नाग पंचमी के नाम से जाना जाता है. पहले यह मेला वेणीनाग मंदिर प्रांगण में लगता था, लेकिन बाद में यह बेरीनाग बाजार में लगने लगा है. इस दिन लोग सर्वप्रथम वेणीनाग मंदिर में पूजा अर्चना करते हैं फिर नीचे बाजार की ओर आते हैं. इसी दिन वेणीनाग जी को पहला भोग लगाया जाता है.
इस मेले का सबसे बड़ा आकर्षण विशाल मैदान में लगने वाली चांचरी है. जिसमें सभी वर्गों के लोग बिना किसी भेदभाव के हिस्सा लेते हैं. स्त्री-पुरुष, बच्चे सभी मिलकर चांचरी का आनंद उठाते हैं. मेला जब अपनी चरम सीमा में होता है, तभी सांगड़ नामक गांव के दास ढोल-नगाड़ों के साथ बेरीनाग स्थित वेणीनाग मंदिर (Mystery of Berinag Veni Nag Temple) की ओर चल पड़ते हैं. जिसमें हजारों की संख्या में लोगों की भीड़ साथ में चलती है.
यहां आप पास के नौगांव इग्यारपाली, राईआगर, बडेत बाफिला आदि क्षेत्रों से बड़ी संख्या ग्रामीण ढोल नगाड़ों और गाजे बाजे के साथ वेणीनाग मंदिर (Nag Devta Mandir Berinag) पहुंचते है. जिनका स्वागत पुजारी करते हैं. जहां पर सभी गांवों के लोग मंदिर में झोड़ा चांचरी और अपने गांव की संस्कृति को दिखाते हैं. भट्टीगांव के परंपरागत पुजारी पंत जाति के लोगों की ओर से वेणीनाग जी की आरती की जाती है. जिससे पूरा क्षेत्र भक्तिमय हो जाता है. तीन परिक्रमा करने के बाद भोग का आयोजन होता है. खीर का भोग वेणीनाग को लगाकर सभी भक्तगण प्रसाद ग्रहण करते हैं.
वेणीनाग देवता नगाड़े में बैठकर देते हैं आशीर्वादःप्रसाद लेने के बाद ढोल-नगाड़ों के साथ लोग मुख्य बाजार में पहुंचते हैं. मुख्य बाजार में बड़ी गर्म जोशी से इनका स्वागत किया जाता है. इनका दुकानों में आना शुभ माना जाता है. माना जाता है कि स्वयं वेणीनाग देवता नगाड़े में बैठकर लोगों को आशीर्वाद देने आते हैं. बाजार में पहुंचते ही माहौल भक्तिमय हो जाता है. ढोली के समापन की घोषणा करने पर मेला समाप्त हो जाता है. मेले का एक मुख्य आकर्षण आस पास की महिलाओं की ओर से पूर्ण श्रृंगार यानी नथ पहनकर आना है, जिसे काफी शुभ माना जाता है.
ससुराल से बेटी और मायके से मां दोनों का होता था मिलनःमेले में बोरा जाति की महिलाओं के साथ एक परंपरा ये जुड़ी है कि ससुराल से लड़की और मायके से मां दोनों मेले में आती हैं. मेले में ही दोनों की भेंट होती है. ये लोग केले के पत्ते में खीर और पूरी लेकर आते हैं. जिसे आपस में मिल बैठकर खाते हैं. आधुनिकता के दौर में यह परंपरा भी दम तोड़ रही है. संचार एवं सड़क माध्यमों का विकास हो गया है. महिलाएं अधिक स्वतंत्र और शिक्षित हो गईं हैं. जिसके कारण यह परंपरा धीरे-धीरे समाप्त हो रही है.
सुरयाव की परंपरा हुई समाप्तःबेरीनाग में दूसरा मेला रात का मेला होता है, जो भाद्र शुक्ल पक्ष की अनंत चतुर्दशी को लगता है. इस दिन रामगंगा के उस पार के लोग जिन्हें स्थानीय भाषा में 'सुरयाव' बोला जाता है. झुंड में चैती, चांचरी गाते हुए मंदिर पहुंचते थे, जिसमें स्त्री-पुरुष, बच्चे सभी शामिल होते थे. ये लोग, अठ खेत, बलतीर, चौबाटी, डीडीहाट, सत्याल गांव, कुमालगांव आदि गांवों के होते थे. पांच परिक्रमा कर पूजा पाठ करने के बाद खरीददारी करते हुए वापस अपने घर की ओर चल पड़ते थे, लेकिन वर्तमान में यह परंपरा समाप्त हो गई है. अब लोग बसों व छोटी गाड़ियों से मंदिर में पूजा अर्चना के लिए आते हैं.
बेरीनाग नगर का पूर्व इतिहासःअंग्रेजों के कुमाऊं पर अधिकार करने के पहले और उसके बाद बेरीनाग का महत्व टी स्टेट के रूप में हुआ था. जिस कारण ब्रिटिश पर्यटक और सैलानी बेरीनाग टी स्टेट पर्यटन के लिए आते थे. साल 1856 में एक प्राइवेट कंपनी के अंतर्गत 'ईस्ट इंडिया कंपनी' ने इसका नीलाम किया. एक अंग्रेज जिसका नाम हिल स्टकेशन था, उसने एक प्रस्ताव ब्रिटिश सरकार के पास भेजा. जिसमें 200 एकड़ भूमि चाय के लिए स्वीकृत हुई. बाद में आरएस ब्लेयर एवं जिम कार्बेट ने इस चाय के बागान को खरीदा और चाय का उत्पादन किया. चाय उत्पादन एवं हरे भरे बागानों को देखकर ब्रिटिश काल में भी पर्यटक इस ओर आकर्षित होते थे. यहां साल मौसम अच्छा होता है. चीड़, बुरांश, बांज और देवदार के जंगल इसकी सुंदरता में चार चांद लगा देते हैं. बेरीनाग जितना मनोरम स्थल है, उतना ही प्राकृतिक सौंदर्यता बेरीनाग से पर्यटकों को दिखाई देता है.