पिथौरागढ़:सपना तो था पहाड़ के विकास का, पहाड़ को चीरते हुए अंतिम छोर को मुख्यधारा में लाने का, मगर राज्य बनने के 21 साल बाद क्या ये सपना पूरा हो पाया है ? क्या पहाड़ की मुश्किलें कम हुई हैं? पहाड़ की जवानी और पानी क्या पहाड़ के काम आ रहा है? कुछ ऐसे ही सवाल राज्य बनने के 21 साल बाद आज भी जिंदा है.
उत्तराखंड की शांत पहाड़ियों में विकास की झटपटाहट दशकों रही है. यही वजह थी कि अलग राज्य बनाने के लिए यहां के लोगों ने अपनी जिंदगी और अस्मिता दोनों को ही दांव में लगा डाला. लेकिन पृथक उत्तराखंड में भी लगता है कि पहाड़ के सुलगते सवाल हल नहीं हो पाये हैं. आलम ये है कि 21 साल गुजरने पर भी पर्वतीय क्षेत्रों में पलायन, शिक्षा, स्वास्थ्य, बेरोजगारी का संकट हल होने के बजाय और अधिक बढ़ा है.
कुमाऊं हो या गढ़वाल पिछले 21 सालों में सरकारी आंकड़ों के मुताबिक यहां के 10 पहाड़ी जिलों में 2 लाख 6 हजार से अधिक घर खाली हो गए हैं. यही नहीं, शुरूआती 8 सालों में ही पहाड़ी जिलों से 6 विधानसभा सीटें भी पलायन के चलते कम हो चुकी हैं. आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग जरूर गांव में रूका है. लेकिन उसके हालात भी बद से बदतर हो रहें. पहाड़ के विकास के नाम पर जिस राज्य का जन्म हुआ था. उन्हीं पहाड़ों में आज ना तो डॉक्टर चढ़ना चाह रहे हैं, न ही टीचर. नौकरशाही ने भी पिछले कुछ समय से पहाड़ों से दूरी बना ली है.
उत्तराखंड की राजनीति ना तो दूरदर्शी रही है और ना ही यहां के राजनेताओं में बड़े फैसले लेना का साहस दिखा है, जिस कारण 21 सालों के सफर में भी स्थाई राजधानी और परिसम्पतियों के बंटवारे जैसे ज्वलंत सवाल हल नहीं हो पाये हैं. नीति-निर्माताओं ने पिछले 21 सालों में ऊर्जा, हर्बल और पर्यटन प्रदेश का जुमला तो खूब उछाला. लेकिन राज्य की अर्थव्यवस्था को पटरी लाने में ये जुमले नाकाम ही रहे हैं. आपदा की सबसे अधिक मार झेलने वाले प्रदेश में आपदा प्रबंधन और पुनर्वास को लेकर कोई ठोस नीति नहीं बन पाई है. उम्मीद की जानी चाहिए कि आने वाले दौर में हुक्मरान इन गलतियों से सबक लेंगे और उत्तराखंड आंदोलन की मूल भावना की दिशा में आगे बढ़ेगा.