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हिंदी दिवस विशेष: देवभूमि के इस लाल को मिली थी हिन्दी में डी.लिट की प्रथम उपाधि - Hindi Day special in Uttarakhand

ऐसे कई साहित्यकार हुए हैं जिन्होंने तमाम मुसीबतों को झेलते हुए उत्तराखंड में हिंदी साहित्य को जीवंत रखा. लेकिन आज समाज ने उनके योगदान को ही भुला दिया है. आज के दौर के साहित्यकारों में वे पराये से नजर आते हैं.

हिंदी दिवस विशेष.

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Published : Sep 14, 2019, 6:03 AM IST

श्रीनगर:14 सितंबर हर साल हिंदी दिवस के रूप में मनाया जाता है. ऐसे में ईटीवी भारत आपको हिंदी साहित्य के लिए काम करने वाले साहित्यकारों से रूबरू करवाएगा. आज हम आपको एक ऐसे साहित्यकार के बारे में बताने जा रहे हैं जिन्होंने तमाम मुसीबतों को झेलते हुए उत्तराखंड में हिंदी साहित्य को जीवंत रखा. लेकिन आज समाज ने उनके योगदान को ही भुला दिया है. आज के दौर के साहित्यकारों में वे पराये से नजर आते हैं.

हिंदी दिवस विशेष

डॉ. पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल ये ही वो नाम है जिसने उत्तराखंड में तमाम उपेक्षाओं के बाद भी किताबें संजोने व लोक कथाओं को साहित्य में लाने का काम किया. पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल ने उत्तराखंड में हिंदी साहित्य को जीवंत रखने के लिए कई प्रयास किये. कोटद्वार के छोटे गांव से आने वाले पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल ने अपने जमाने में खूब प्रसिद्धि पायी. वे हिन्दी के पहले डि.लिट उपाधि प्राप्त करने वाले पहले साहित्यकार थे.

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बात अगर आज के दौर की करें तो डॉ. पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल आज के साहित्यकारों के बीच पराये से नजर आते हैं. एक समय में हिंदी और साहित्य को पहचान दिलाने वाले डॉ. पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल आज खुद के इलाके में ही अपनी पहचान को मोहताज हैं.

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ऐसे ही एक और साहित्यकार थे गोविन्द चातक जो कि टिहरी के बडियारगड़ के रहने वाले थे. उनके जीवन की कहानी लिखने वाली लेखिका प्रो. मंजुला राणा बताती हैं कि उनकी चातक से कई बार मुलाकात हुई. मंजुला बताती हैं कि चातक जी को इस बात का हमेशा मलाल रहता था कि वे उत्तराखंड की सेवा नहीं कर पाये. क्योंकि उन्हें गढ़वाल विवि. में दो बार आवेदन करने के बाद भी नियुक्ति नहीं दी गई. जिसके कारण कई बार उनकी आंखों में आंसू आ जाते थे.

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चातक भले ही अपने हिन्दी साहित्य के कारण विशेष पहचान रखते हो लेकिन वे हमेशा ही अपनों के बीच बेगाने ही रहे. गढ़वाल विवि. में हिन्दी विभाध्यक्ष प्रो. मंजुला राणा का कहना है कि उत्तराखण्ड में ऐसे साहित्यकारों को हमेशा उपेक्षा ही झेलनी पड़ी है.

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हिन्दी के जानकार और उत्तराखण्ड के साहित्य की समझ रखने वाले विशेषज्ञ मानते हैं कि जिन उत्तराखण्डी साहित्यकारों को भुलाया गया है, उन्हें फिर से जीवंत करने की आवाश्यकता है. साहित्यप्रेमी कहते हैं कि उत्तराखण्ड साहित्य प्रेमी राज्य रहा है वहां ऐसे साहित्यकारों के साहित्य पाठयक्रम में शामिल किये जाने की जरुरत है.

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