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कई बातें बोलने में बहुत अच्छी लगती हैं, लेकिन परिणाम...भू-कानून पर बोले त्रिवेंद्र - भू-कानून .

उत्तराखंड के लोग भी हिमाचल की तर्ज पर प्रदेश में सख्त भू-कानून (uttarakhand land law demand) की मांग करने लगे है. हालांकि इस पर मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी जहां पहले ही कह चुके है कि जनता के लिए जो सही लोगों उसे लागू किया जाएगा. वहीं अब पूर्व सीएम त्रिवेंद्र सिंह रावत (trivendra singh rawat) का कहना है कि बिना अध्ययन के कोई भी फैसला नहीं लेना चाहिए. कुछ बातें बोलने में बहुत अच्छी लगती हैं, लेकिन परिणामों को भी सोचना चाहिए .

trivendra singh rawat
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Published : Jul 15, 2021, 8:26 PM IST

Updated : Jul 15, 2021, 8:52 PM IST

पौड़ी: उत्तराखंड में भू-कानून आंदोलन (uttarakhand land law demand) को सोशल मीडिया के जरिए धार दी जा रही है. युवा बड़ी संख्या में सोशल मीडिया पर हिमाचल की तरह उत्तराखंड में भी भू-कानून की मांग कर रहे है. वहीं इस मामले पर उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत (trivendra singh rawat) ने भी अपने विचार रखें. उन्होंने कहा कि जिन प्रदेशों में यह कानून लागू है, वहां जाकर अध्ययन करना चाहिए. अध्ययन के बाद ही किसी नतीजे पर पहुंचना चाहिए. कई बातें बोलने में बहुत अच्छी लगती है. लेकिन उसके परिणामों को भी सोचना चाहिए.

पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत गुरुवार को पौड़ी पहुंचे थे, जहां उन्होंने कलेक्ट्रेट के पास अधिवक्ताओं के लिए बने चेंबर का लोकार्पण किया. इस दौरान जब पूर्व मुख्यमंत्री रावत से उत्तराखंड में भू-कानून (uttarakhand land law) की मांग को लेकर सवाल किया गया तो उन्होंने कहा कि ये आवाज उठी है तो इस पर विचार भी करना ही चाहिए.

भू-कानून पर बोले पूर्व CM.

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इसके साथ ही उन्होंने कहा कि जिन राज्यों में भू-कानून लागू है, वहां जाकर अध्ययन करना चाहिए. उन राज्यों में भू-कानून के क्या परिणाम मिले है. पूर्व मुख्यमंत्री ने कहा कि भू-कानून (demand strict land law in uttarakhand) की जब हम बात करते है तो स्पेशल कैटेगिरी यानी आर्टिकल-371 की बात होती है. बहुत ज्यादा अध्ययन के बाद ही किसी निर्णय पर पहुंचना चाहिए.

विशेषज्ञों और भू-कानून के जानकारों को इस पर पूरा अध्ययन करना चाहिए. भविष्य में राज्य पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा, उसके बाद ही इस पर कुछ फैसला लेना चाहिए. जब किसी कानून को लागू किया जाता है, बनाया जाता है या फिर संशोधित किया जाता है तो भविष्य में उसके परिणाम के बारे में सोचा जाता है. तभी कोई फैसला लिया जाता है. इसीलिए कई बातें बोलने में बहुत अच्छी लगती है. लेकिन उसके परिणामों को भी सोचना चाहिए.

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दरअसल, उत्तराखंड में सोशल मीडिया पर पिछले कुछ दिनों से भू-कानून की मांग उठ रही है. युवाओं का एक बड़ा वर्ग हिमाचल की तर्ज पर उत्तराखंड में भी भू-कानून लागू करने की मांग कर रहा है. इसको लेकर सोशल मीडिया भू-कानून उत्तराखंड के नाम पर अभियान भी चलाया जा रहा है, जो इन दिनों काफी ट्रेड कर रहा है. कई समाजिक संगठन भी भू-कानून के पक्ष में सामने आ गए है.

उत्तराखंड में भू-कानून का इतिहास: भू-कानून का सीधा-सीधा मतलब भूमि के अधिकार से है. यानी आपकी भूमि पर केवल आपका अधिकार है न की किसी और का. यूपी से अलग होने के बाद 9 नंवबर 2000 में उत्तराखंड राज्य का गठन हुआ था. राज्य गठन से लेकर साल 2002 तक बाहरी राज्यों के लोगों को उत्तराखंड में केवल 500 वर्ग मीटर तक जमीन खरीदने का अधिकार था. साल 2007 में तत्कालीन मुख्यमंत्री बीसी खंडूरी ने यह सीमा 250 वर्ग मीटर कर दी. इसके बाद 6 अक्टूबर 2018 को तत्कालीन सीएम त्रिवेंद्र सिंह रावत ने उत्तर प्रदेश जमींदारी विनाश एंव भूमि सुधार अधिनियम 1950 में संशोधन किया. इसे विधानसभा में पारित भी किया गया.

इस संशोधन के विधानसभा में पारित होने के बाद इसमें धारा 143 (क) धारा 154(2) जोड़ी गई. यानी पहाड़ों में भूमि खरीद की अधिकतम सीमा को समाप्त कर दिया गया. अब कोई भी राज्य में कहीं भी कितनी भूमि खरीद सकता है. साथ ही इसमें उत्तराखंड के मैदानी जिलों देहरादून, हरिद्वार और यूएसनगर में भूमि की हदबंदी (सीलिंग) खत्म कर दी गई. इन जिलों में तय सीमा से अधिक भूमि खरीदी या बेची जा सकेगी.

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हिमाचल के मुकाबले उत्तराखंड का भू कानून बहुत ही लचीला: साल 2000 के आंकड़ों पर नजर डालें तो उत्तराखंड की कुल 8,31,227 हेक्टेयर कृषि भूमि 8,55,980 परिवारों के नाम दर्ज थी. इनमें 5 एकड़ से 10 एकड़, 10 एकड़ से 25 एकड़ और 25 एकड़ से ऊपर की तीनों श्रेणियों की जोतों की संख्या 1,08,863 थी. इन 1,08,863 परिवारों के नाम 4,02,422 हेक्टेयर कृषि भूमि दर्ज थी. यानी राज्य की कुल कृषि भूमि का लगभग आधा भाग. बाकी 5 एकड़ से कम जोत वाले 7,47,117 परिवारों के नाम मात्र 4,28,803 हेक्टेयर भूमि दर्ज थी.

उपरोक्त आंकड़े दर्शाते हैं कि, किस तरह राज्य के लगभग 12 फीसदी किसान परिवारों के कब्जे में राज्य की आधी कृषि भूमि है. बची 88 फीसदी कृषि आबादी भूमिहीन की श्रेणी में पहुंच चुकी है. हिमाचल के मुकाबले उत्तराखंड का भू कानून बहुत ही लचीला है. इसलिए सामाजिक एवं राजनीतिक क्षेत्र में सक्रिय लोग, एक सशक्त, हिमाचल के जैसे भू-कानून की मांग कर रहे हैं.

क्या है हिमाचल का भू-कानून: 1972 में हिमाचल में एक सख्त कानून बनाया गया. इस कानून के अंतर्गत बाहर के लोग हिमाचल में जमीन नहीं खरीद सकते थे. दरअसल, हिमाचल उस वक्त इतना सम्पन्न नहीं था. डर था कि कहीं हिमाचल के लोग बाहरी लोगों को अपनी जमीन न बेच दें. जाहिर सी बात थी कि वो भूमिहीन हो जाते. भूमिहीन होने का अर्थ है कि अपनी संस्कृति और सभ्यता को भी खोने का खतरा.

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दरअसल, हिमाचल के प्रथम मुख्यमंत्री डॉ. यशवंत सिंह परमार ये कानून लेकर आए थे. लैंड रिफॉर्म एक्ट 1972 में प्रावधान के तहत एक्ट के 11वें अध्याय में control on transfer of lands में धारा -118 के तहत हिमाचल में कृषि भूमि नहीं खरीदी जा सकती. गैर हिमाचली नागरिक को यहां जमीन खरीदने की इजाजत नहीं है. कमर्शियल प्रयोग के लिए आप जमीन किराए पर ले सकते हैं. 2007 में धूमल सरकार ने धारा -118 में संशोधन किया और कहा कि बाहरी राज्य का व्यक्ति, जो हिमाचल में 15 साल से रह रहा है, वो यहां जमीन ले सकता है. बाद में अगली सरकार ने इसे बढ़ा कर 30 साल कर दिया था.

Last Updated : Jul 15, 2021, 8:52 PM IST

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