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कोटद्वार: यहां अनोखे तरीके से मनाया जाता है मकर संक्रांति का त्योहार - कोटद्वार में मकर संक्रांति

कोटद्वार के मावाकोट, थलनदी, डाडामंडी में मकर संक्रांति के पर्व को अनोखे तरीके से मनाया जाता है. हर साल इस मौके पर गेंद मेले का आयोजन किया जाता है, जिसमें स्थानीय लोग और दूर-दराज के लोग बढ़-चढ़कर भाग लेते हैं.

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मकर संक्रांति का त्योहार

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Published : Jan 8, 2020, 2:40 AM IST

कोटद्वार: मकर संक्रांति का पावन पर्व पौड़ी गढ़वाल के अलग-अलग जगहों पर गेंद मेले के रूप में धूमधाम से मनाया जाता है. इस मौके पर स्थानीय लोग मेले में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हैं और मेले का लुत्फ उठाते हैं. मेले में गेंद को एक विशेष प्रकार की सामग्री (चमड़े) से बनाया जाता है. वहीं, खेल में खिलाड़ियों की संख्या भी असीमित होती है. इस मेले को पौड़ी गढ़वाल की भाषा मे गिन्दी मेला भी कहा जाता है.

मकर संक्रांति हिंदुओं का प्रमुख पर्व है, ये पर्व पूरे भारत में किसी न किसी रूप से मनाया जाता है. पौष मास में जब सूर्य मकर राशि पर आता है, तब इस संक्रांति को मनाया जाता है. ये पर्व अधिकतर जनवरी माह की 14 तारीख को मनाया जाता है. कभी यह पर्व 12, 13 या 15 जनवरी को भी मनाया जाता है. ये इस बात पर निर्भर करता है कि सूर्य कब धनु राशि को छोड़कर मकर राशि में प्रवेश करेगा. इस दिन से सूर्य की उत्तरायण गति आरंभ होती है और इसी कारण इसको उत्तरायणी पर्व या उत्तरायणी मेला भी कहते हैं.

मकर संक्रांति का त्योहार

मकर संक्रांति से जुड़ी पौराणिक कथाएं
कहा जाता है कि इस दिन भगवान सूर्य अपने पुत्र शनि से मिलने स्वयं उसके घर जाया करते हैं. शनिदेव क्योंकि मकर राशि के स्वामी हैं. इसी कारण इस दिन को मकर संक्रांति के नाम से जाना जाता है. मकर संक्रांति के दिन ही गंगा जी भगीरथ के पीछे-पीछे चलकर कपिल मुनि के आश्रम से होकर सागर में मिल गई थीं. यह भी कहा जाता है कि गंगा को धरती पर लाने वाले महाराज भागीरथ ने अपने पूर्वजों के लिए इसी दिन तर्पण किया था. उनका तर्पण स्वीकार करने के बाद इस दिन गंगा जी समुद्र में जाकर मिल गई थीं, इसीलिए मकर संक्रांति पर गंगा सागर में भव्य मेले का आयोजन भी होता है.

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दो दिनों तक मनाए जाने वाले इस मेले के पहले दिन सबसे पहले एक विशेष सामग्री (चमड़े) की गेंद कारीगर द्वारा बनाई जाती है. गेंद के अंदर स्थानीय क्षेत्र की मिट्टी को भरा जाता है, उसके बाद गेंद की विधि-विधान के अनुसार पूजा अर्चना की जाती है. अगले दिन गेंद को ढोल दमाऊं के साथ नाचते गाते हुए गेंद मेले वाले स्थान पर लाई जाती है. जहां पर गेंद को दो अलग-अलग पट्टी की टीम के हवाले कर दिया जाता है, इन टीमों में खिलाड़ियों की संख्या निर्धारित नहीं होती जो भी अपने पट्टी में गेंद को ले जाता है. उसकी जीत दर्ज की जाती है और वही क्षेत्र विजयी माना जाता है.

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