रामनगर: उत्तराखंड के पहाड़ों में हर घर की शान बढ़ाने वाली काष्ठ कला अब यादों में सिमट गई है. उत्तराखंड काष्ठ कला के लिए प्रसिद्ध है. काष्ठ कारीगर लकड़ी से पाली, ठेकी, कुमया भदेल, ढौकली आदि तैयार करते थे. लेकिन सरकारी उपेक्षा और उचित पैसे नहीं मिलने के कारण उत्तराखंड में अब न काष्ठ रहा और न कलाकार.
उत्तराखंड में काष्ठ कला अब विलुप्त होने की कगार पर है. बागेश्वर से हर साल रामनगर के गर्जिया में काष्ठ कलाकार कारोबार करने के लिए पहुंचते हैं. वन विभाग द्वारा आवंटित सूखे पेड़ों से ये कलाकार लकड़ी में जीवन उकेरते हैं. पाली, ठेकी, नलिया, कुमया भदेल, ढौकली उत्तराखंड के हर घर की शान बढ़ाया करते थे. पहाड़ों में राजी जनजाति के लोग ही लकड़ी के बर्तन बनाने की परम्परागत कला जानते हैं.
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कैसे बनाते हैं बर्तन
राजी जनजाति के लोग हर साल रामनगर में आकर कोसी और बौर नदी किनारे अपना डेरा जमाकर पनचक्की की मदद से लकड़ी के बर्तन तैयार करते हैं. कारीगर अपने कौशल के बदौलत नदी की धारा को एक नाली से गुजारते हैं. नाली में एक पंखा लगा रहता है, जो पानी की तेज धार गिरने पर घूमता है. उस पंखे के साथ खराद जुड़ा होता है, जिसकी मदद से काष्ठकार लकड़ी के बर्तन बनाते हैं. गेठी और सानन की लकड़ी से बनने वाले बर्तन किसी जमाने में उत्तराखंड के हर घर की शान बढ़ाया करते थेे.
हाशिए पर राजी जनजाति और काष्ठ कला
काष्ठ कारीगर कुंदन राम के मुताबिक वे हर साल बागेश्वर से रामनगर बर्तन बनाने के लिए आते हैं. पहले बागेश्वर से करीब 20 कारीगरों का दल आता था. जो अब मात्र 3 लोगों पर ही सिमट गया है. कुंदन राम के मुताबिक उपेक्षा और उचित मूल्य नहीं मिलने के कारण कारीगर काष्ठ कला से दूर होते जा रहे हैं. उनके गांव में अब मात्र 29 ही काष्ठ कारीगर बचे हुए हैं.