हल्द्वानीःप्राकृतिक सुंदरता, हरे-भरे जंगल और पहाड़ी खेत के लिए देश-विदेश में उत्तराखंड की अपनी अलग ही पहचान है. लेकिन उत्तराखंड की सिमटती कृषि भूमि अब चिंता का विषय बनता जा रही है. विकास की अंधी दौड़ में जगह-जगह बन रहे कंक्रीट के घर और लोगों में अधिक से अधिक पैसा कमाने का लालच खेती-किसानी से दूर कर रहा है. ऐसे में लगातार राज्य में खेती की भूमि कम होती जा रही है.
देवभूमि में किसानों का खेती से मोहभंग. राजस्व विभाग के आंकड़ों के अनुसार उत्तराखंड में वर्ष 2010- 11 में 8,15,684 हेक्टेयर कृषि भूमि थी, जो घटकर वर्ष 2015- 16 में 747319 हेक्टेयर रह गया है. 5 सालों में 68,365 हेक्टेयर कृषि भूमि घटी है, जबकि 210-11में प्रदेश में 9,12,660 किसान खेती किया करते थे जो घटकर अब 8,81,305 किसान रह गए हैं.
बात कुमाऊं मंडल की करें तो मंडल के छह जिलों में 2010 -11 में 3,85,069 हेक्टेयर कृषि भूमि थी, जो घटकर 2015- 16 में 362170 हेक्टेयर रह गई है. संयुक्त निदेशक कृषि विभाग कुमाऊं मंडल प्रदीप कुमार सिंह के अनुसार लगातार हो रहे शहरीकरण, पहाड़ों पर जंगली जानवरों द्वारा फसलों को बर्बाद किया जाना और पहाड़ों से हो रहे पलायन कृषि भूमि को कम करने का काम कर रहा है, जो प्रदेश के लिए चिंता का विषय है.
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कृषि निदेशक प्रदीप कुमार सिंह के अनुसार कृषि विभाग कृषि क्षेत्र के लिए काम कर रहा है. किसानों के लिए कई कल्याणकारी योजनाओं को भी चलाया जा रहा है और योजनाओं से ज्यादा से ज्यादा किसानों को जोड़ा भी जा रहा है. जिससे कि पहाड़ की कृषि भूमि को बचाया जा सके.