हल्द्वानी: पलायन उत्तराखंड के सीने में घाव की तरह है. जिसकी पीड़ा से प्रदेश के गांव कराह रहे हैं. प्रदेश सरकार पलायन आयोग बनाकर मर्ज को ढूंढने की कोशिश कर रही है, लेकिन मरहम कब लगेगा किसी को पता नहीं है. सूबे में कई गांव ऐसे हैं जहां कि वीरानी लोगों को वहां दिन में जाने से भी डरा रही है. वजह और तस्वीर बिल्कुल साफ है पलायन, जहां आजादी के सात दशक बीत जाने के बाद भी विकास की लौ भी नहीं जली.
विकास की आस में पथराई आंखें. पलायन किसी दंश से कम नहीं क्योंकि सुदूरवर्ती पर्वतीय क्षेत्रों के लोग सड़क, बिजली, पानी और स्वास्थ्य जैसी मूलभूत सुविधाएं न मिलने से शहरों की ओर रुख कर रहे हैं. जो लोग गांव में रहते भी है उन्हें रोजमर्रा की वस्तुओं के लिए मीलों का सफर तय करना पड़ता है. जहां आज भी लोग अपनों के घर आने का इंतजार करते दिखाई देते हैं. ये तस्वीरें अल्मोड़ा जिले के नैनोली गांव की हैं.
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जहां प्रसव पीड़ित महिलाओं और बुजुर्ग लोगों के बीमार होने पर उन्हें डोली के सहारे 20 किलोमीटर दूर धौलादेवी स्वास्थ्य केंद्र लाया जाता है. जो उन गांवों की नीति बन गई है. गांव में हॉस्पिटल की सुविधा न होने से लोग मरीज को डोली के सहारे सड़क तक पहुंचाते दिख रहे हैं. जो सरकार के दावों को आइना दिखा रही हैं. आज पहाड़ में प्रत्येक गांव में 70 फीसदी पलायन की यही वजह है कि वहां बुनियादी सुविधाओं का अभाव है.
लोग मजबूरी में पलायन करने को अपनी नीयति मान बैठे हैं. ग्रामीण इलाकों के सैकड़ों गांव ऐसे हैं जिनमें 5 से 15 किलोमीटर तक आज भी पैदल चढ़ाई- चढ़नी पड़ती है. जो आजादी के सात दशक बीत जाने के बाद भी सड़क सुविधा से वंचित हैं. सरकार ने पलायन आयोग का गठन तो कर दिया, लेकिन आयोग की रिपोर्ट पर क्या अमलीजामा पहनाना है उसके बारे में नहीं सोचा. जिससे गांवों के हालात जस के तस बने हुए हैं. यह झकझोर देने वाली तस्वीरें इस बात की तस्दीक कर रही हैं कि सरकार जितने भी वादे करें, लेकिन जमीनी हकीकत ठीक उलट है.
बता दें कि उत्तराखंड में जारी पलायन को रोकने के मकसद से शुरू ईटीवी भारत की मुहिम 'आ अब लौटें' लगातार जारी है. सरकार से भी बार-बार इस ओर ध्यान देने की अपील की जा रही है. घरों पर लगातार ताले पड़ते जा रहे हैं. जो लोग यहां ठहरे भी हैं तो उनकी उम्र इतनी हो चुकी है कि वो गांव से बाहर पैदल तक नहीं चल सकते हैं. जिनके जुबां पर पलायन का दर्द साफ झलकता है.