नैनीताल: उत्तराखंड हाइकोर्ट ने राज्य सरकार द्वारा वन अधिनियम में संशोधन कर 5 हेक्टेयर से कम क्षेत्र में फैले या 60 प्रतिशत से कम घनत्व वाले वनों को वन नहीं मानने के खिलाफ दायर जनहित याचिकाओं पर सुनवाई की. मामले की सुनवाई मुख्य न्यायधीश विपिन सांघी व न्यायमूर्ति राकेश थपलियाल की खण्डपीठ में हुई. खंडपीठ ने राज्य सरकार द्वारा पेश किए गए रिकार्ड पर सुनवाई करते हुए अगली सुनवाई 19 जून को नियत की है.
मामले के अनुसार नैनीताल निवासी पर्यावरणविद प्रोफेशर अजय रावत व अन्य ने जनहित याचिकाएं दायर की हैं. जिसमें कहा गया कि 21 नवम्बर 2019 को उत्तराखंड के वन एवं पर्यावरण अनुभाग ने एक आदेश जारी कर कहा है कि उत्तराखंड में जहां 5 हेक्टेयर से कम या 60 प्रतिशत से कम घनत्व वाले वन क्षेत्र हैं उनको वनों की श्रेणी से बाहर रख गया है. यहां उनको वन नहीं माना गया. याचिकर्ताओं ने कहा यह आदेश एक ऑफिसल आदेश है. इसे लागू नहीं किया जा सकता. यह नही शासनादेश है और न ही यह कैबिनेट से पारित आदेश है. सरकार ने इसे अपने लोगों को फायदा पहुंचाने के लिए घुमा फिरा कर जीओ जारी किया है.
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याचिकर्ताओं ने कहा फारेस्ट कन्जर्वेशन एक्ट 1980 के अनुसार प्रदेश में 71 प्रतिशत वन क्षेत्र घोषित है. जिसमें वनों की श्रेणी को भी विभाजित किया हुआ है, मगर इसके अलावा कुछ क्षेत्र ऐसे भी हैं जिनको किसी भी श्रेणी में नहीं रखा गया है. याचिकर्ताओं ने कहा इन क्षेत्रों को भी वन क्षेत्र की श्रेणी में शामिल किया जाये. जिससे इनके दोहन या कटान पर रोक लग सके. सुप्रीम कोर्ट ने 1996 के अपने आदेश गोडा वर्मन बनाम केंद्र सरकार में कहा है कोई भी वन क्षेत्र चाहे उसका मालिक कोई भी हो उनको वनों क्षेत्र के श्रेणी में रखा जाएगा. वनों का अर्थ क्षेत्रफल या घनत्व से नहीं है. विश्वभर में भी जहां 0.5 प्रतिशत क्षेत्र में पेड़ पौधे हैं या उनका घनत्व 10 प्रतिशत है उन्हें भी वनों की श्रेणी में रखा गया है. सरकार के इस आदेश पर वन एवं पर्यारण मंत्रालय भारत सरकार ने कहा प्रदेश सरकार वनों की परिभाषा न बदलें. उत्तराखंड में 71 प्रतिशत वन होने कारण कई नदियों व सभ्यताओं के अस्तित्व बना हुआ है.