कल्पवृक्ष संरक्षित कर रहा हल्द्वानी वन अनुसंधान केंद्र हल्द्वानी: 'कल्पवृक्ष' का नाम आपने कहीं न कहीं जरूर सुना होगा, लेकिन क्या आपने कभी कल्पवृक्ष देखा है? मान्यता है कि समुद्र मंथन के दौरान कल्पवृक्ष की उत्पत्ति हुई थी. इसे देवलोक का वृक्ष माना जाता है. पुराणों में कल्पवृक्ष की जानकारी मिलती है. ऐसे दैवीय कल्पवृक्ष को संरक्षित करने का काम उत्तराखंड वन अनुसंधान केंद्र लालकुआं कर रहा है. उत्तराखंड वन अनुसंधान केंद्र लालकुआं की नर्सरी में कल्पवृक्ष के पौधों को संरक्षित करने का काम किया जा रहा है.
वन अनुसंधान केंद्र प्रभारी मदन सिंह बिष्ट ने बताया कि अभी तक कल्पवृक्ष के पेड़ भारत के कुछ राज्यों में कुछ ही जगहों पर पाए जाते हैं. उत्तराखंड में कल्पवृक्ष का पेड़ नहीं पाया जाता है. इसको देखते हुए केंद्र ने कल्पवृक्ष के पौधों को तैयार करने का काम किया है. जिससे कल्पवृक्ष को संरक्षित किया जा सके. कल्पवृक्ष का वैज्ञानिक नाम ओलिया कस्पीडाटा है. यह यूरोप के फ्रांस व इटली, दक्षिण अफ्रीका और ऑस्ट्रेलिया के अलावा भारत के कई हिस्सों में पाया जाता है.
वन अनुसंधान केंद्र में कल्पवृक्ष पढ़ें- Chardham Yatra 2023: बिना टोकन के नहीं होंगे चारधाम के दर्शन, ये रहा पूरा अपडेट पौराणिक धर्मग्रंथों और हिन्दू मान्यताओं के अनुसार माना जाता है कि समुंद्र मंथन के दौरान कल्पवृक्ष की उत्पत्ति हुई थी. इस पेड़ का धार्मिक और औषधीय महत्व है. इस वृक्ष के नीचे बैठकर व्यक्ति जो भी इच्छा करता है वह पूर्ण हो जाती है, क्योंकि इस वृक्ष में अपार सकारात्मक ऊर्जा होती है. समुद्र मंथन के 14 रत्नों में कल्पवृक्ष भी एक था. समुद्र मंथन से प्राप्त इस वृक्ष को देवराज इन्द्र को दे दिया गया था. इन्द्र ने इसकी स्थापना हिमालय के उत्तर में कर दी. समुद्र मंथन की पौराणिक घटना के बाद जो चौदह रत्नों में कालकूट विष रत्न, कामधेनु, उच्चैश्रवा घोड़ा रत्न, ऐरावत हाथी, कौस्तुभ मणि, कल्पवृक्ष, अप्सरा रंभा, देवी लक्ष्मी की प्राप्ति हुई.
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वन अनुसंधान केंद्र के प्रभारी मदन बिष्ट ने बताया कि कल्पवृक्ष का धार्मिक और औषधीय महत्त्व है. जिसके कारण इस वृक्ष की पूजा होती है. इसमें 6 गुना ज्यादा विटामिन 'सी' होता है. कल्पवृक्ष में कैल्शियम भी होता है, जो गाय के दूध से दोगुना होता है. इसमें विटामिन पाए जाते हैं. इसकी पत्ती को धो-धाकर सुखाकर या पानी में उबालकर खाया जा सकता है. छाल, फल और फूल का उपयोग भी किया जाता है. इसके पत्ते एंटी-ऑक्सीडेंट होते हैं. कब्ज और एसिडिटी में ये सबसे कारगर हैं. एलर्जी, दमा, मलेरिया को भी इससे दूर किया जा सकता है. वन अनुसंधान केंद्र लालकुआं ने इस संरक्षित प्रजाति के एक पेड़ को तैयार किया है जो, इस समय पतझड़ की स्थिति में है. अनुसंधान केंद्र का मकसद इस विलुप्त हो रही प्रजाति के पेड़ को उत्तराखंड के अन्य हिस्सों में भी लगाने का है.