हल्द्वानी: वनों की रक्षा करते हुए जान न्योछावर करने वाले वन कर्मियों की शहादत को श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए हर साल 11 सितंबर को राष्ट्रीय वन शहीद दिवस मनाया जाता है. वन शहीद दिवस वनों की रक्षा में अपनी जान गंवाने वाले वन कर्मियों के सम्मान में मनाया जाता है, लेकिन प्रदेश में वनों की सुरक्षा में लगे अग्रिम पंक्तियों के वन कर्मियों के पास आज भी जंगलों की सुरक्षा के लिए लाठी-डंडे, परंपरागत और पुराने हथियार ही हैं. आए दिन वन तस्करों से मुठभेड़ और मानव वन्यजीव संघर्ष की घटनाएं देखी जा रही हैं. जिसके चलते वन कर्मियों को आए दिन अपनी जान गंवानी पड़ती है. लेकिन सरकार और विभाग वन कर्मियों की सुरक्षा को लेकर गंभीर नहीं दिखती हैं.
बता दें कि, 71 प्रतिशत जंगल भूभाग वाले उत्तराखंड में कोई भी राजनीतिक दल या सरकार वन कर्मियों की सुरक्षा को लेकर गंभीर नहीं दिखी हैं. वन कर्मियों और अन्य संसाधनों के साथ-साथ हथियारों की कमी से वन विभाग जूझ रहा है. यही नहीं फॉरेस्ट गार्ड की भर्ती प्रक्रिया पिछले कई सालों से अटकी पड़ी है. जमीनी हकीकत यह है कि एक फॉरेस्ट गार्ड को 3,000 हेक्टेयर क्षेत्र मे फैले जंगल की सुरक्षा की जिम्मेदारी सौंपी गई है. जबकि नियमानुसार 1,000 हेक्टेयर की सुरक्षा एक फॉरेस्ट गार्ड के कंधों पर होती है. लंबे समय से रेंजर, डिप्टी रेंजर और एसीएफ (सहायक वन संरक्षक) से लेकर नीचे तक भारी संख्या मे पद खाली पड़े हैं. यही नहीं जंगल में काम करने वाले अधिकतर वन रेंजरों के पास रिवॉल्वर तक नहीं है. जबकि जंगलों में तस्करी करने वाले तस्कर हाईटेक हथियारों से लैस होकर जंगलों में बेखौफ अपना कारोबार को अंजाम देते हैं.
वनों की सुरक्षा को लेकर सरकार और वन विभाग ज्यादा गंभीर नहीं दिखाई दे रहे हैं. वनों की सुरक्षा में लगे अग्रिम पंक्ति के सिपाहियों और फॉरेस्ट वॉचरों को ठेके पर रखा गया है. इनको मामूली पगार देकर वनों की सुरक्षा में लगाकर उनकी जान से खिलवाड़ किया जा रहा है. वन कर्मियों के पास कोई हथियार भी उपलब्ध नहीं हैं. जब कभी वन तस्करों या वन्यजीवों से मुठभेड़ की नौबत आती है तब मजबूरन लाठी डंडे के सहारे वन कर्मी अपनी जिम्मेदारी निभाते हैं.
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उत्तराखंड में हर साल कई फॉरेस्ट गार्ड और रेंजर या तो मारे जाते हैं या अपनी ड्यूटी निर्वहन करते हुए अपाहिज हो जाते हैं. यही नहीं फील्ड में उन्हें दुर्गम इलाकों में कई मील पैदल चलना पड़ता है. उनके पास न तो खाने-पीने और ठहरने की कोई व्यवस्था होती है और न ही प्राथमिक उपचार का कोई इंतजाम होता है. इसके अलावा तस्करों, खनन माफिया और जंगली जानवरों से बचाव के लिए उनके पास हथियार भी नहीं होते हैं. लेकिन मजबूरी में अपनी ड्यूटी का निर्वहन कर वनों की रक्षा करते हैं.
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