हल्द्वानी: देवभूमि की परंपरा अपने आप में अनूठी है. यहां की संस्कृति के कायल देश के लोग ही नहीं विदेशी भी हैं. चैत का महीना आते ही बेटी/बहन अपने दरवाजे पर टकटकी लगाई रहती हैं. वे मायके से आ रही भिटौली का बेसब्री से इंतजार करती हैं. दूर से ही मायके वालों की आहट सुनकर बेटी/बहन की आंखें में आंसू भर आते हैं.
चैत्र का महीना लगते ही देवभूमि की बेटियों को रहता है भिटौली का इंतजार, जानिए क्या है ये परंपरा
यह परंपरा भावनात्मक जुड़ाव को दर्शाती है. भिटौली चैत्र के पहले दिन फूलदेई से पूरे महीने मनाया जाता है. उत्तराखंड में ये परंपरा अतीत से चली आ रही है. त्येक वर्ष चैत्र माह में मायके पक्ष की ओर से पिता या भाई बेटी/बहन के ससुराल भिटौली लेकर जाता है.
अपने सामने मायके वालों को देख कुशलक्षेम पूछने में देर नहीं लगाती. ये पल हर बेटी/बहन और मायके वालों के लिए खास होता है. जिसमें बेटी/बहन का अपनों से मिलन होता है. यह परंपरा भावनात्मक जुड़ाव को दर्शाती है. भिटौली चैत्र के पहले दिन फूलदेई से पूरे महीने मनाया जाता है. उत्तराखंड में ये परंपरा अतीत से चली आ रही है. प्रत्येक वर्ष चैत्र माह में मायके पक्ष की ओर से पिता या भाई बेटी/बहन के ससुराल भिटौली लेकर जाता है. भिटौली में मायके वाले पकवान लेकर जाते हैं. जिसमें घर में बने व्यंजन खजूर, खीर, पूड़ी, मिठाई, फल, कपड़े भेंट किया जाता है.
भाई बहन के इस अटूट प्रेम, मिलन को ही भिटौली कहा जाता है. जोकि भाई और बहन के असीम प्रेम को दर्शाता है. भिटौली पर्वतीय क्षेत्रों में हर घर से दी जाती है. बेटी/बहन अपने सखियों से पूछना नहीं भूलती की उसकी भिटौली आई की नहीं. वहीं आधुनिकता इस अतीत की परंपरा पर भारी पड़ने लगी है. बदलते दौर में भिटौली अब रस्म अदाई भर बनता जा रहा है. औपचारिकता पूरी करने के लिए मायके पक्ष अब नेट बैंकिंग के जरिए बहन को भिटौली के रूप में कुछ रकम भेज देते हैं. वहीं आज जरूरत हैं तो पर्वतीय अंचल की इस परंपरा को बचाए रखने की.