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अंग्रेजों के जुल्म का मूक साक्षी वट वृक्ष, 1857 की क्रांति में अहम योगदान - 1857 की क्रांति क्या है

रुड़की के सुनहरा गांव में मौजूद ऐतिहासिक वट वृक्ष ब्रिटिश हुकूमत के जुल्म का साक्षी बनकर खड़ा हुआ है. सुनहरा के वट वृक्ष पर फांसी पर लटकाए गए 100 से अधिक क्रांतिकारी गुमनाम हैं. उन्हें वे सम्मान हासिल नहीं हो सकता, जिसके वे हकदार थे.

Witness tree of oppression of British rule
जुल्म का साक्षी रुड़की का वट वृक्ष

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Published : Aug 14, 2020, 10:31 PM IST

Updated : Aug 15, 2020, 5:01 AM IST

रुड़की: स्वतंत्रता आंदोलन में उत्तराखंड का योगदान अहम रहा है. रुड़की शहर से कुछ दूरी पर स्थित सुनहरा गांव में मौजूद ऐतिहासिक वट वृक्ष ब्रिटिश हुकूमत के जुल्म का साक्षी बना हुआ है. अंग्रेजों के खिलाफ आवाज उठाने वाले 100 से अधिक क्रांतिकारियों को वट वृक्ष पर सरेआम फांसी दे दी गई थी.

1857 की क्रांति को भले ही देश की आजादी की पहली क्रांति कहा जाता हो, लेकिन अंग्रेजी गजेटियर के मुताबिक रुड़की में इस क्रांति की ज्वाला इससे काफी पहले ही भड़क उठी थी. अक्तूबर 1824 को कुंजा ताल्लुक में राजा विजय सिंह के नेतृत्व में अंग्रेजों के खिलाफ पहला युद्ध हुआ था और इस दौरान अंग्रेजों को बड़ी क्षति हुई थी. इसके साथ ही कई स्वतंत्रता सेनानियों ने देश की आजादी के लिए अपने प्राण भी न्यौछावर किए थे.

अंग्रेजों के जुल्म का मूक साक्षी वट वृक्ष.

रुड़की के स्वतंत्रता सेनानी स्व. हकीम मोहम्मद यासीन के बेटे डॉ मोहम्मद मतीन का कहना है कि 1857 की क्रांति का बिगुल बजना शुरू हुआ तो ब्रिटिश हुकूमत में खलबली मच गई. आजादी के मतवालों को सबक सिखाने के लिए अंग्रेजों ने इलाके में कत्लेआम का तांडव मचाया था. बताया जाता है कि सहारनपुर के ज्वॉइंट मजिस्ट्रेट सर राबर्ट्सन ने 10 मई 1857 को रामपुर, कुंजा, मतलबपुर आदि गांवों के 100 से अधिक ग्रामीणों को पकड़कर इस पेड़ पर सरेआम फांसी पर लटका दिया था.

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रुड़की के सुनहरा गांव में मौजूद ऐतिहासिक वट वृक्ष 500 साल से अधिक ब्रिटिश हुकूमत के जुल्म का साक्षी बनकर खड़ा हुआ है. स्थानीय लोगों की पहल के बाद वट वृक्ष को शहीद स्मारक के रूप में स्थापित किया गया है, जो स्वतंत्रता संग्राम में रुड़की के शौर्य को दर्शा रहा है. डॉ मोहम्मद मतीन का कहना है कि उन्होंने अपने पिता से अंग्रेजी हुकुमत के जुल्म और देशवासियों के बलिदान की गाथा सुनी थीं. जो आज भी उनके मन में रह-रहकर याद दिलाती रहती है.

ऐतिहासिक दस्तावेजों में यह भी उल्लेख है कि ब्रिटिश हुकूमत के खौफ के चलते आसपास के लोग गांव छोड़कर चले गए थे. साल 1910 में स्वतंत्रता सेनानी स्व. ललिता प्रसाद ने इस वटवृक्ष के आसपास की जमीन को खरीदकर इसे आबाद किया था. उसके बाद यहां मंत्राचरणपुर गांव बसाया गया, जो बाद में सुनहरा के नाम से जाना गया.

इस दौरान एक कमेटी का गठन भी किया गया था. शहीदी यादगार कमेटी के अध्यक्ष डॉ मोहम्मद मतीन बताते हैं कि वटवृक्ष के नीचे शहीद हुए आजादी के दीवानों की याद में 10 मई 1957 को स्वतंत्र भारत में पहली बार विशाल सभा का तत्कालीन एसडीएम बीएस जुमेल की अध्यक्षता में हुआ था. जिसमें शहीदों को श्रद्धांजलि दी गई है. उसी दौरान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी हकीम मोहम्मद यासीन की अध्यक्षता में शहीद यादगार कमेटी का गठन किया गया था.

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अंग्रेजी हुकूमत के जुल्म की इंतहा

स्वतंत्रता सेनानी स्व. शोभाराम के पोते आदर्श गुप्ता का कहना है कि ब्रिटिश हुकूमत ने यह कदम इसलिए उठाया कि रुड़की के लोग भयभीत हो जाएं और अंग्रेजों के खिलाफ आवाज न उठा सकें. ताकि आसानी से रुड़की और सहारनपुर में मौजूद छावनी से ब्रिटिश फौज को दूसरी जगह भेजा जा सके. 1947 में जब देश आजाद हुआ, तब तक इस पेड़ पर लोहे के कुंडे एवं जंजीरें लटकी हुई थीं. जो बाद में लोगों ने धीरे-धीरे उतार लिए. हालांकि जंजीरों के निशान पेड़ की टहनियों पर आज भी मौजूद हैं.

10 मई 1857 को ब्रिटिश हुकूमत ने 100 से अधिक क्रांतिकारियों को इस वट वृक्ष पर सरेआम फांसी दे दी. जिसकी बाद हर साल यहां शहीदों के याद में एक सभा का आयोजन किया जाता रहा है. स्वतंत्रता संग्राम सेनानी हकीम मोहम्मद यासीन के बेटे मोहम्मद मतीन बताते हैं कि यह वटवृक्ष आजादी का प्रतीक है. लेकिन बदलते दौर में यह वटवृक्ष राजनीति की भेंट चढ़ता जा रहा है. राजनीतिक दलों के नेता श्रद्धांजलि के नाम पर राजनीतिक रोटियां सेकते हैं. मतीन के मुताबिक गणतंत्र दिवस और स्वतंत्रता दिवस पर वट वृक्ष शहीद स्मारक में एक भव्य श्रद्धांजलि सभा का आयोजन होना चाहिए, ताकि आज की पीढ़ी भी देश की आजादी के प्राणों का न्यौछावर करने वाले शहीदों को जान सके.

स्थानीय लोगों का कहना है प्रशासनिक उपेक्षा की वजह से ऐतिहासिक वट वृक्ष के आसपास का इलाका बिखरा हुआ है. कोई ऐसी पहचान इस पेड़ को नहीं मिल पाई, जिसका यह हकदार है. अब इस पेड़ के नीचे कोई बड़ी सभा आयोजित नहीं की जाती है. वहीं, 10 मई को कुछ गिने-चुने लोग ही शहीदों को नमन करने पहुंचते हैं.

शहीद भी गुमनाम

सुनहरा के वट वृक्ष पर फांसी पर लटकाए गए 100 से अधिक क्रांतिकारी और ग्रामीण गुमनाम हैं. ऐतिहासिक दस्तावेजों में उनके नाम का उल्लेख नहीं है. इतना जरूर लिखा गया है कि ये सभी क्रांतिकारी और ग्रामीण आसपास के गांवों के रहने वाले थे.

Last Updated : Aug 15, 2020, 5:01 AM IST

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