हरिद्वारः महाकुंभ ऐसा समागम है, जहां देश-विदेश से श्रद्धालु न केवल आस्था की डुबकी लगाने पहुंचते हैं. बल्कि, साधु संन्यासियों के दर्शन कर उनका आशीर्वाद भी लेते हैं. यही अवसर है, जब विभिन्न साधु संतों के संप्रदायों से लोग वाकिफ होते हैं. इन्हीं संतों में से एक संप्रदाय दंडी स्वामियों का है. दंडी स्वामियों की अलग दुनिया है, जो दंड धारण करते हैं. कठिन दिनचर्या और तप के जरिये ये अपनी साधना में लगे रहते हैं. न तो दंडी स्वामी खुद अन्न बनाते हैं, न ही बिना निमंत्रण किसी के यहां भोजन करने जाते हैं.
भगवान नारायण के अवतार माने जाते हैं दंडी स्वामी. बता दें कि मनुस्मृति जैसे धर्म ग्रंथों में दंडियों के बारे में बताया गया है. यूं तो व्यक्ति अपनी अंतिम अवस्थाओं में वर्णाश्रम धर्मानुसार सभी द्विज को तीन आश्रमों में रह चुकने के बाद संन्यास होने का विधान है. दंडी संन्यासी केवल ब्राह्मण ही हो सकता है. उसे भी माता-पिता और पत्नी के न रहने पर ही दंडी होने की अनुमति थी.
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वास्तविक संन्यास संसार के सभी बंधनों और संबंधों को तोड़ देने से ही संभव है. दंडी स्वामी अखंडानंद तीर्थ के अनुसार दंडी स्वामी बनने की सबसे पहली शर्त उसका ब्राह्मण होना है. उसके बाद शालीग्राम पूजन के बाद विधि-विधान से पूजा करके ही दंडी स्वामी बना जा सकता है. एक दंडी स्वामी अग्नि से वंचित रहते हुए, कभी खाना खुद नहीं बनाते, केवल जब कोई ब्राह्मण या संत खाने पर बुलाता है, तभी खाने जाते हैं.
अखंडानंद बताते हैं कि दंडी स्वामी खुद नारायण के अवतार होते हैं. इसलिए कभी भिक्षा न मांग कर केवल बुलावे पर भोजन पर जाते हैं. वहीं, स्वामी अधोक्षजानंद देव तीर्थ का कहना है कि दंडी स्वामी के दर्शन मात्र से ही नारायण के दर्शन हो जाते हैं. अगर कुंभ में दंडी स्वामी की सेवा नहीं की तो कुंभ भी अधूरा माना जाता है. साथ ही दंडी स्वामी खुद भोजन भी नहीं बनाते हैं.
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उन्होंने बताया कि माना जाता है कि दंडी स्वामियों को धन की कमी नहीं आती है. खुद लक्ष्मी माता इनके साथ रहती है. दंडी स्वामियों का जीवन काफी कठिन रहता है. क्योंकि, वो खुद ही दंड धारण कर लेते हैं. माना जाता है कि राम राज्य में किसी को भी दंड नहीं दिया जाता था. उस समय केवल दंडी स्वामी ही थे. जिन्होंने दंड धारण किया था. तब से उन्हें वरदान है कि वो नारायण की तरह पूजे जाएंगे.