देहरादून: उत्तराखंड (Uttarakhand) में एक बार फिर बारिश का कहर देखने को मिल रहा है. पिथौरागढ़ जिले के धारचूला के दूरस्थ गांव जुम्मा में बादल फटने (Cloud burst in Pithoragarh) से भारी नुकसान की खबर आ रही है. घटना के बाद तीन बच्चियों के शव बरामद कर लिये हैं जबकि, गांव के चार लोग लापता बताये जा रहे हैं. SDRF रेस्क्यू टीम लापता लोगों की तलाश कर रही है.
उत्तराखंड में हाल के दिनों में बादल फटने की घटनाओं में बढ़ोत्तरी हुई है. जून 2013 की आपदा के दौरान भी उत्तरकाशी, चमोली, रुद्रप्रयाग, बागेश्वर और पिथौरागढ़ में कई स्थानों पर बादल फटने की घटनाएं हुई थी. उत्तराखंड में बादल फटने और अत्याधिक वर्षा की घटनाएं काफी बढ़ रही हैं. उत्तराखंड, हिमाचल और जम्मू कश्मीर में बादल फटने की घटनाएं सबसे ज्यादा होती हैं. मैदानी इलाकों में भी बादल फटने की घटनाएं सामने आई हैं.
ऐसे फटते हैं बादल: पर्वतीय क्षेत्रों में बादल फटने या अत्याधिक बारिश की घटनाएं सबसे ज्यादा होती हैं. देहरादून के मौसम वैज्ञानिकों के मुताबिक जब एक जगह पर अचानक एक साथ भारी बारिश हो जाए तो उसे बादल फटना कहते हैं. आम आदमी के लिए बादल फटना वैसा ही है, जैसा किसी पानी भरे गुब्बारे को अचानक फोड़ दिया जाए. वैज्ञानिकों के मुताबिक बादल फटने की घटना तब होती है. जब काफी ज्यादा नमी वाले बादल एक जगह पर रुक जाते हैं. वहां मौजूद पानी की बूंदें आपस में मिल जाती हैं.
बूंदों के भार से बादल का घनत्व बढ़ जाता है. फिर अचानक भारी बारिश शुरू हो जाती है. बादल फटने पर 100 मिमी प्रति घंटे की रफ्तार से बारिश हो सकती है. पानी से भरे बादल पहाड़ी इलाकों में फंस जाते हैं. पहाड़ों की ऊंचाई की वजह से बादल आगे नहीं बढ़ पाते. फिर अचानक एक ही स्थान पर तेज बारिश होने लगती है. चंद सेकेंड में 2 सेंटीमीटर से ज्यादा बारिश हो जाती है. पहाड़ों पर अमूमन 15 किमी की ऊंचाई पर बादल फटते हैं. पहाड़ों पर बादल फटने से इतनी तेज बारिश होती है, जो सैलाब बन जाती है. हिमालयी क्षेत्रों में बादल फटने के बाद विनाशलीला इसलिए भी ज्यादा होती है कि अधिकतर हिमालय अभी कच्चा पहाड़ है.
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बादल फटने के बाद कैसा होता है मंजर: बादल फटने के बाद जान-माल का भारी नुकसान होता है. इससे घर और वाहन भी क्षतिग्रस्त होते हैं. मलबे और भूमि कटाव के कारण सड़कें बंद हो जाती हैं. बादल फटने से के बाद तीव्र गति से भूस्खलन होता है, जो सब कुछ मलबे में तब्दील कर देता है. जिसकी वजह से बिजली-पानी की आपूर्ति बाधित होती है और संचार व्यवस्था ठप हो जाती है.
वैज्ञानिकों का कहना है कि क्लाइमेट वेरिएबिलिटी पूरे हिमालयी क्षेत्र में बढ़ गई है. बारिश की तीव्रता भी बढ़ गई है. बारिश पॉकेट्स (छोटे-छोटे हिस्सों) में हो रही है. किसी एक जगह बादल इकट्ठा होते हैं और अत्यधिक भारी वर्षा से बादल फटने जैसे हालात पैदा होते हैं. बारिश का समान डिस्ट्रिब्यूशन नहीं है. इसके साथ ही मॉनसून की कुल अवधि भी घट गई है. इसके साथ ही गर्मियों में हीट वेव बढ़ने से घाटियां और मध्यम ऊंचाई वाले क्षेत्रों में गर्मी बढ़ रही है. जिसका असर जलवायु में आ रहे बदलावों पर पड़ता है.
देहरादून में स्थित वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी के वैज्ञानिकों का भी कहना है कि निश्चित तौर पर बादल फटने की घटनाएं पिछले एक दशक में बढ़ी हैं. उत्तराखंड में पहले भी बादल फटते थे, लेकिन वो दुर्गम इलाकों में किसी गांव में ऐसी इक्का-दुक्का घटनाएं होती थीं. जिससे नुकसान भी इतना अधिक नहीं होता था. लेकिन अब मल्टी क्लाउड बर्स्ट यानी बहुत सारे बादल एक साथ एक जगह पर फट रहे हैं. जिससे काफी नुकसान हो रहा है.
डैम से भी बादल फटने की घटनाएं:वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी के वैज्ञानिकों का कहना है कि टिहरी बांध के अस्तित्व में आने के बाद इस तरह की घटनाओं में खासतौर पर इजाफा हुआ है. टिहरी में भागीरथी नदी पर करीब 260.5 मीटर ऊंचा बांध बना है, जिसका जलाशय करीब 4 क्यूबिक किलोमीटर का करीब 3,200,000 एकड़ फीट में फैला है, जिसका ऊपरी हिस्सा करीब 52 वर्ग किलोमीटर का है.
जिस भागीरथी नदी का कैचमेंट एरिया (जलग्रहण क्षेत्र) पहले काफी कम था, बांध बनने के बाद वो बहुत अधिक हो गया. इतनी बड़ी मात्रा में एक जगह पानी इकट्ठा होने से बादल बनने की प्रक्रिया में अत्यधिक तेजी आई है. मॉनसून सीजन में बादल इस पानी को संभाल नहीं पाते हैं और फट जाते हैं. पूरे उत्तराखंड में जल विद्युत परियोजनाएं चल रही हैं. नदी का प्राकृतिक बहाव रोकने से प्रकृति मुश्किल में आ गई है, इसलिए बादल फटने की घटनाओं में भी तेजी आई है.
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उत्तराखंड के कुछ पर्यावरणविदों का मानना है कि बादल फटने की घटनाओं में पिछले एक दशक में निश्चित तौर पर इजाफा हुआ है. टिहरी बांध की विशाल झील से जो वाष्पीकरण होता है वो बरसात के मौसम में भारी बादल बनाता है, जिसका असर सिर्फ गढ़वाल पर ही नहीं कुमाऊं पर ही होता है.
1952 में बादल फटने की बड़ी घटना:वैज्ञानिकों के मुताबिक उत्तराखंड में बादल फटने की पहली बड़ी घटना 1952 में सामने आई थी. जब पौड़ी जिले के दूधातोली क्षेत्र में हुई अतिवृष्टि से नयार नदी में अचानक बाढ़ आ गई थी. इस घटना में सतपुली कस्बे का अस्तित्व पूरी तरह से खत्म हो गया था और कई लोगों को मौत हो गई थी. 1954 में रुद्रप्रयाग जिले के डडुवा गांव में अतिवृष्टि के बाद भूस्खलन से पूरा गांव दब गया था. 1975 के बाद से लगभग हर साल इस तरह की घटनाएं होने लगी और अब हर बरसात में 15 से 20 घटनाएं दर्ज की जा रहीं हैं.
सूखा और अतिवृष्टि दोनों से आफत:वैज्ञानिकों का कहना है कि उत्तराखंड को अब एक साथ सूखा और अतिवृष्टि का सामना करना पड़ रहा है. वर्ष में ज्यादातर समय सूखे की स्थिति बनी रहती है और कुछ दिन के भीतर इतनी बारिश आ जाती है कि जनधन का भारी नुकसान उठाना पड़ता है. अतिवृष्टि से होने वाला नुकसान इस बात पर निर्भर करता है कि उस क्षेत्र में पहाड़ी ढाल की प्रवृत्ति किस तहत की आमतौर पर भंगुर और तीव्र ढाल वाले क्षेत्र में अतिवृष्टि से ज्यादा नुकसान होता है.
वैज्ञानिक पर्वतीय क्षेत्रों में बड़ी संख्या में बनने वाली सड़कों को भी अतिवृष्टि से होने वाले नुकसान का कारण मानते हैं. वैज्ञानिकों का कहना है कि उत्तराखंड में पिछले 20 वर्षों में लगभग 52 हजार किमी सड़कों का निर्माण हुआ है. एक किमी सड़क निर्माण में औसतन 40 घन मीटर मलबा पैदा होता है. इस तरह इन 20 वर्षों में करीब 200 करोड़ घनमीटर मलबा पैदा हो चुका है. इस मलबे के निस्तारण के लिए भी कोई वैज्ञानिक तरीका नहीं अपनाया जाता. मलबा पहाड़ी ढलानों में ही पड़ा रहता है और तेज बारिश होने पर निचले क्षेत्रों में नुकसान पहुंचाता है.