देहरादूनःमहाराष्ट्र में इनदिनों राज्यपाल की टोपी चर्चा का विषय बनी हुई है. हालांकि, कांग्रेस और शिवसेना के लिए एक राजनीति का विषय है, लेकिन उत्तराखंड में इस टोपी की काफी अहमियत और मान है. आइए आपको टोपी की विशेषताओं से रूबरू कराते हैं.
महाराष्ट्र के राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी अक्सर पहाड़ी टोपी पहने रहते हैं. काले रंग की यह पहाड़ी टोपी केवल उनकी व्यक्तिगत पोशाक से संबंध नहीं रखती है, बल्कि यह उत्तराखंड का एक सिंबल है. उत्तराखंड के गढ़वाल और कुमाऊं रेजिमेंट समेत इस काली टोपी का संबंध राज्य के सांस्कृतिक व धार्मिक मान्यताओं से भी जुड़ा हुआ है.
परंपरा, राजशाही, अध्यात्म और शौर्य से जुड़ी काली टोपी
उत्तराखंड की परंपरा से काली टोपी का काफी पुराना नाता रहा है. आज भी पहाड़ के गांवों में बुजुर्ग लोग अपनी पारंपरिक पोशाक के साथ इस काली टोपी को लगाए नजर आते हैं तो वहीं, उत्तराखंड के पौराणिक राजशाही से जोड़कर भी इस काली टोपी को देखा जाता है. बताया जाता है कि बदरी केदार मंदिर में रावल को छोड़कर बाकी सभी इसी काली टोपी के साथ मंदिर में प्रवेश करते हैं. इतना ही नहीं गढ़वाल और कुमाऊं रेजीमेंट में भी इस काली टोपी का अपना एक अलग महत्व है.
मंदिर इवेंट के दौरान गढ़वाल राइफल में टोपी का विशेष महत्व
पूर्व सैनिक कैप्टन नंदन सिंह बुटोला बताते हैं कि गढ़वाल राइफल में हर रविवार को होने वाले मंदिर इवेंट के दौरान इस काली टोपी के जरिए अपने अपने धर्मों को सम्मान दिया जाता है. इसी काली टोपी को पहन कर अपने धार्मिक स्थलों में प्रवेश करते हैं. साथ ही कहा कि इसी टोपी पर सेना के अलग-अलग रैंक पर मौजूद अधिकारी अपने बैच लगाते हैं. कोई भी सैनिक या फिर सैन्य अधिकारी बिना इस टोपी के नहीं रहता है. ऐसा होता है तो इसे अनुशासनहीनता माना जाता है.
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