उत्तराखंड

uttarakhand

ETV Bharat / state

देवभूमि में घुघुतिया त्योहार का है विशेष महत्व, उत्तरैणी त्यार में कौवों को खिलाते हैं पकवान - कुली बेगार प्रथा का अंत

आज मकर संक्रांति है, उत्तराखंड में इसे उत्तरायणी के नाम से जाना जाता है. कुमाऊं में उत्तरायणी को उत्तरैणी त्यार कहते हैं. आइए आपको बताते हैं क्या है उत्तरायणी और इस त्योहार को उत्तराखंड में कैसे मनाते हैं.

uttarakhand ghughutiya festival
घुघुतिया का पर्व

By

Published : Jan 14, 2022, 4:00 AM IST

देहरादून:उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल में मकर संक्रांति को 'घुघुतिया' के तौर पर धूमधाम से मनाया जाता है. एक दिन पहले आटे को गुड़ मिले पानी में गूंथा जाता है. देवनागरी लिपी के 'चार', ढाल-तलवार और डमरू सरीखे कई तरह की कलाकृतियां बनाकर पकवान बनाए जाते हैं. इन सबको एक संतरे समेत माला में पिरोया जाता है. इसे पहनकर बच्चे अगले दिन घुघुतिया पर सुबह नहा-धोकर कौओं को खाने का न्योता देते हैं. बच्चे कुछ इस तरह कौओं को बुलाते हैं-

काले कौआ काले, घुघुति मावा खा ले!

लै कावा भात, मिकैं दिजा सुनौक थात!!

लै कावा लगड़, मिकैं दिजा भै-बैणियों दगौड़।

लै कावा बौड़, मिकैं दिजा सुनुक घ्वड़!!

उत्तराखंड में हर तीज-त्योहार का अपना अलग ही उल्लास है. यहां शायद ही ऐसा कोई पर्व होगा, जो जीवन से अपनापन न जोड़ता हो. ये पर्व-त्योहार उत्तराखंडी संस्कृति के प्रतिनिधि भी हैं और संस्कारों के प्रतिबिंब भी. हम ऐसे ही अनूठे पर्व 'मकरैंण' से आपका परिचय करा रहे हैं. यह पर्व गढ़वाल, कुमाऊं व जौनसार में अलग-अलग अंदाज में मनाया जाता है.

ये भी पढ़ेंःकौवों के लिए बनाए जाते हैं खास पकवान, जानिए घुघुतिया के पीछे की पौराणिक कथा

उत्तराखंडी पर्व-त्योहारों की विशिष्टता यह है कि यह सीधे-सीधे ऋतु परिवर्तन के साथ जुड़े हैं. मकर संक्रांति इन्हीं में से एक है. इस संक्रांति को सूर्य मकर राशि में प्रवेश करता है और इसी तिथि से दिन बड़े व रातें छोटी होने लगती हैं. लेकिन, सबसे अहम बात है मकर संक्रांति से जीवन के लोक पक्ष का जुड़ा होना. यही वजह है कि कोई इसे उत्तरायणी, कोई मकरैणी (मकरैंण), कोई खिचड़ी संगरांद तो कोई गिंदी कौथिग के रूप में मनाता है. गढ़वाल में इसके यही रूप हैं. कुमाऊं में घुघुतियाऔर जौनसार में मकरैंण को मरोज त्योहार के रूप में मनाया जाता है.

दरअसल, त्योहार एवं उत्सव देवभूमि के संस्कारों रचे-बसे हैं. पहाड़ की 'पहाड़' जैसी जीवन शैली में वर्षभर किसी न किसी बहाने आने वाले ये पर्व-त्योहार अपने साथ उल्लास एवं उमंगों का खजाना लेकर भी आते हैं. जब पहाड़ में आवागमन के लिए सड़कें नहीं थीं, काम-काज से फुर्सत नहीं मिलती थी, तब यही पर्व-त्योहार जीवन में उल्लास का संचार करते थे.

ये भी पढ़ेंःकुमाऊं में घुघुतिया त्योहार की धूम, पर्व की ये है रोचक कथा

ये ही ऐसे मौके होते थे, जब घरों में पकवानों की खुशबू आसपास के वातावरण को महका देती थी. दूर-दराज ब्याही बेटियों को इन मौकों पर लगने वाले मेलों का बेसब्री से इंतजार रहता था. यही मौके रिश्ते तलाशने के बहाने भी बनते थे. आज भी मकरैंण पर पूरे उत्तराखंड में विभिन्न स्थानों पर इसी तरह मेलों का आयोजन होता है.

उत्तरायणी मेले का ऐतिहासिक महत्वःबागेश्वर में लगने वाले उत्तरायणी मेले का धार्मिक के साथ ही ऐतिहासिक महत्व भी है. आज ही के दिन यानी 14 जनवरी 1921 को (मकर संक्रांति के दिन) बागेश्वर के लोगों ने कुली बेगार प्रथा का अंत कर दिया था. यह प्रथा ब्रिटिश हुकूमत की ओर से थोपी गई थी. इतना ही नहीं उस समय राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने प्रभावित होकर इसे रक्तहीन क्रांति का नाम दिया था.

दरअसल, बागेश्‍वर का उत्तरायणी मेला स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान भी लोगों में स्वतंत्रता की अलख जगाने का काम करता था. उत्तराखंड आंदोलन के समय भी आंदोलनकारी इस मेले के जरिए एकजुट होते थे. साल 1921 में बंधुआ मजदूरी के खिलाफ इसी मेले से हुंकार भरी गई थी, आज भी उस आंदोलन को 'कुली बेगार' के नाम से जाना जाता है.

इस बार नहीं होगा बागेश्‍वर का ऐतिहासिक उत्तरायणी मेलाःदरअसल, देश और प्रदेश में कोरोना का कहर जारी है. कोरोना के मद्देनजर बागेश्वर का ऐतिहासिक उत्तरायणी मेला स्थगित किया गया है. उत्तरायणी मेले में किसी भी प्रकार के आयोजन नहीं होंगे. इससे पहले उत्तरायणी मेले के आयोजन एक हफ्ते की जगह केवल तीन दिन ही कराने का निर्णय लिया गया था.

स्थानीय कलाकारों ने सांस्कृतिक कार्यक्रम और धार्मिक अनुष्ठानों का आयोजन करने का निर्णय लिया था. वहीं, जन भावनाओं को ध्यान में रखते हुए लोकल व्यापारियों एवं उत्पादों को ही इस मेले में शामिल करने का फैसला भी लिया गया था, लेकिन शासन की ओर से नई गाइडलाइन को ध्यान में रखते हुए मेले में कोई भी गतिविधियां नहीं करने का निर्णय लिया गया है.

ABOUT THE AUTHOR

...view details